Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैन विद्या
सुमरिवि वारवार उम्माइय पंचमु गाइय ।
बुन्नउ नाहि कोवि संभालइ विसउ निहालइ । .. पियविरहानलेण संतत्तउ सो हिंडंतउ ।
7.8
'स्मृति', 'उत्साह', प्रौत्सुक्य', 'चिन्ता', 'दैन्य', प्रादि संचारियों से सहवर्तित 'मातृभूमि रति' का एक चित्र तब मिलता है जब सार्थ संकटग्रस्त होता है
नियजम्मभूमि सुमरंतइहिं दूरंतर हियइ धरतिहिं । सहएसहो सवडम्मुह हुमहिं उम्माहउ किउ वरिणवरसुवहिं । चवह कोवि संभरिवि सएसहो मच्छड़ होसइच्छेउ किलेसहो । कोवि भणइं परिवद्धियमंगलु प्रज्जवि मित्त दूरि कुरुजंगलु। कोवि भणइं प्रोवाइय देसहं जइ दुत्तर मयरहरु नरेसहं ।
7.1,2
भक्ति तथा सजातीयभाव-"भरत के नाट्यशास्त्र में भक्ति को शान्त में समाविष्ट कर लिया गया है20 जिसके विरुद्ध रसगंगाधरकार ने आपत्ति उठाई है, शाण्डिल्यभक्ति सूत्र, नारद भक्ति सूत्र और श्रीधरी टीका 4 इसको स्वतंत्र प्रतिष्ठा के पक्षधर हैं । पालोच्य कृति में भी 'उत्साह' 'मति', 'विबोध', 'धृति', 'निर्वेद', 'स्मृति', 'विश्वास' प्रादि भावों से पुष्ट भक्ति के एकानेक उदाहरण हैं
महो जण मरिण सयज्जु परिचितहो मं घरवासि दम्महो। स्वरणपरियत्तविसमसमसंकुलगइ संसार धम्महो। मंडलवइ जासु करंति सेव बंदिग्गहि पाविउ सोवि केम्व । जो गिज्जइ गेयवियक्खDहं परिभमई सोवि सहुं रक्खणेहि । हुउ बहुमंडलवइनरवरिदु उच्चाइउ नियसुहिसयणविन्दु । एहउ जाणेविण मच्चलोइ मं करहु गव्वु संपयविहोइ ।
14.20
इसका पानुष्ठानिकभाग भी अत्यन्त प्रसन्न और समर्पणपूर्ण है
16.1
सिरिचंदप्पहनाहु दीवंतर भविसरिदि।
अहिसिउ कल्लाणि परमेसर जेम सुरिदि। मरणवयकायनिवेसियचित्ति पवरघूववासेण विचित्ति । देविण दीवजुत्ति अंगारइ रणरणंतघंटाटंकारइ। उच्चल्लिवि पसन्नथुइवर्याण अगुवासिय परिवासियवारण । बहिषयपायसखइयनिमोएं पुप्फक्खयफलदलसंजोएं। तंवयपत्ति करिवि अणुराएं उच्चल्लिउ प्रारत्तिउ राएं। जलकुसुमंजलि देवी बहुश्रुत्तुग्गिनगिरेण। मक्खयफलघुसिणेहिं निम्मच्छिउ नाहु नरेण ।
___16.2

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