Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 73
________________ जनविद्या जं एमवि न दिन्नु पच्चन्तर वयरिणहि सघणनामहि । तं दुन्विसहु सहिवि नउ सक्किउ सल्लिउ कामबाणाहि । तो अवलोइवि तहिं वयणभंगु पय परिवि निवेसिउ उत्तमंगु । लइ खमिउं खमिउं पुव्वावराहु पय मिल्लि मिल्लि मं करहि गाहु। 12.11 भणियं च पुत्ति माणं नो कीरइ विप्पिए अणुप्पन्ने । मुखे अइट्ठसलिले एमेव न मुच्चए खेडी। परिणयंतहो कंतहो लज्ज वहंतहो माणिणि मारणलं जा करइ । तहिं तेण जि बोसि अंतरि रोसि सो पिउहत्थहो उत्तरह। .. 12.12 'प्रवास' का प्रतीपवासगर्भ अर्थ एक चित्र तब मिलता है जब धनपति कमलश्री से विमुख होकर व्यवहार की 'कोमलता', 'गुणकथन', 'केलिपरिहास'. 'मान', 'प्रलयरोष' आदि सभी को तिलांजलि देता है जो चिरु पियपेसलई चवंतउ मुहमुहेण तंबोलु खिवंतउ । प्रणदिणु पियवावारपसंसउ, तहु वट्टइ पालावणि संसउ। जो परिहासई केलि करतउ परणयसमिय माणु सिहरंतउ। सो बट्टा परिचत्तसणेहउ ता कि होइ ण होइ व जेहउ। . 2.4 'प्रवासोद्वैग' का एक चित्र तब मिलता है जब हमारे प्रधान पात्र की वाग्दत्ता का अपहरण हो जाता है और वह 'अंगों का प्रसौष्ठव', 'संताप', 'मूर्खा', 'अरुचि', 'अधीरता', 'अनालंबनता', 'दुर्बलता' प्रादि अवस्थानों को भोगती हुई एकनिष्ठ बनी रहती है अण्णुवि जणि मच्चरिउ पंयपइ नवि केरणवि समाण सा जंपइ । नउ विहसइ नउ तणु सिंगारइ नउ लोयणहं अंसु विरिणवारइ । अच्छा परिय गरुयउम्वेवइ जण संदेहु करइ जीवेव्वइ । 9.9 पुरुष भी अपवाद नहीं है। उससे संबंधित प्रवास प्रेमोक्रेग चित्र भी 'संताप', 'मूर्छा', 'जड़ता,' 'स्मृति', 'अनालंबनता', 'पांडुता', 'दुर्बलता', 'अरुचि', 'तन्मयता', मादि कामावस्थानों से अंतरित है दूसहपियविमोयसंतत्तउ मुच्छई पत्तउ। सीयलमा९एण वणि वाइउ तणु अप्पाइउ। करयलि नायमुद्द संजोइवि पुण पुणु जोइवि। तेण पहेण पुणु वि संचल्लिउ विरहिं सल्लिउ । दुम्मणु तं पइट्ठ वरमंदिर नयणाणंदिर। पियहि पयल्लयाई परियच्छइ सा न नियच्छइ ।

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