Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 75
________________ जैनविद्या 69 उत्साह तथा सजातीयभाव-'युद्धवीर' का एक 'सतेज चित्र' तब उपलब्ध होता है जब हमारा प्रधान पात्र संग्राम समारंभ में दत्तचित्त होता है। 'प्रौत्सुक्य' 'अमर्ष', 'गर्व', 'असूया', 'मद', 'हर्ष', 'पावेग' प्रादि भाव-लहरियां इसकी सहवर्ती हैं गुडिय महागइंद पक्वरिय तुरंगमजुत्त रहवरा । भड सन्नड बडविढपरियर दूरुक्खित्तरगभरा। तो तम्मि काले भउछडवमाले महाजोहकूरे दुहुक्कंततूरे । बले अप्पमाणे सुसन्नज्झमारणे रणे नोसरंते भयं वीसरंते । महो वप्पयंतो पमारणं चडंतो पसायं चवंतो वियप्पंतचित्तो। सज्जियजयमंगले घोसियमंगले पिक्खिवि पुत्तहोतरिणय सिय। धरणवइहरियहिं पइसियवत्तहिं छडिय वणि वावार किय । 14.8 युद्ध के साथ 'जुगुप्सा' का अविनाभावी संबंध है। धूलिभरे रणांगण में केवल हुंकार सुनाई पड़ती है। धरती रक्त-कर्दम से भरी है। अंधकार और ध्वनि की भयंकरता युद्ध प्रसार को इंगित करते हैं। 'प्रमोह', अभिमान' और 'मात्सर्य' का कैसा संकर है तो हरिखरखुरग्गसंघट्टि छाइउ रण अतोरसे। एं भडमच्छरग्गिसंधुक्करणमतमंधयारणे । धूलीरउ गयणंगण भरंतु उहिउ जगु अंधारउ करंतु। नउ वीसइ प्रप्पु न परुसखग्गु न गइंदु न तुरउ न गयणमग्गु । तेहइवि कालि अविसट्टमोह हुंकारहु पहरु मु_ति जोह। . किवि पाहणंति विसी बहु मुणेवि गयगज्जिउ हयहि सिउ सुणेवि। किवि कोक्किवि पडिसद्दहो चलंति प्रसिमुदिए नियलोयण मलंति । धावंतु कोवि अहियाहिमाणु गयवंतहि भिन्नु अपिच्छमाण । कत्था पहराउरप्रयसमोह गयघर पयट्ट निहति जोह । रउ नट्ठ विहंडिउ भडखलेण महि मुद्दिय वरणसोरिणयजलेण । तो गपघउपिल्लिउ सुहहिं भिल्लिउ अवरुप्पर कप्परियतणु । सरजालोमालिउ पहरकरालिउ भमरावत्ति भमिउं रण। 14.14 कोष तथा सजातीयभाव-'उग्रता', 'अमर्ष', 'उद्वेग', 'चंचलता', 'मद', 'प्रसूया', 'शुभ', 'प्रात्मावदान', 'स्मृति', 'मावेग' आदि भाववीचियों से परिवृत्त 'रौद्र चित्र' तब मिलता है जब हमारे प्रधान पात्र को जाति की कायरता से जोड़कर अपमानित किया जाता है जो वहरिवरंगणहिययसल्लु समरंगणि जो मुहलोहमल्लु । तुहूं पुणु नरनाहहो जइवि मन्नु वारिणयउ वृत्तु पुणु काइं अन्नु ।

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