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जैनविद्या
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जहां तक काव्य-सौन्दर्य का प्रश्न है महाकवि धनपाल ने आलंकारिक शैली के स्थान पर सहज कथा कहना अधिक उचित समझा है । डॉ० तोमर कहते भी हैं-"स्वयंभू और पुष्पदन्त के समान अलंकृत शैली का भविष्यदत्तकथा में प्रयोग नहीं मिलता।
कवि धनपाल भरत खण्ड स्थित “कुरुजंगल" का चित्रण करते हैं लेकिन उपमाओं, उत्प्रेक्षागों या रूपकों की झड़ी नहीं लगाते बल्कि सहज रूप में प्रकृति का चित्रण कर
देते हैं
जहिं पुरइं पवड्ढिय कलयलाई धम्मत्थकाम संचियफलाई। जहि मिहुणइं मयणपरव्वसाइं अवतुप्पतु परिवडियर साइं ॥10
प्रकृति-चित्रण के संदर्भ में ही मैं कवि धनपाल द्वारा किए गए संध्याकाल एवं सूर्योदय के दो चित्र प्रस्तुत करना चाहूंगा जिनसे स्पष्ट है कि कवि प्रालंकारिकता के व्यामोह में न फंसकर वस्तु-वर्णन तक ही सीमित रहा है
थिउ वीसवन्तु खण इक्कु जाम दिणमणि प्रत्थवणहु ढुक्क ताम । हुन संझतेयतंबिरसराय रत्तंबरु णं पंगुरिवि प्राय ॥ 4.4. 3-4
परिगलिय रयरिण पयडिउ विहाण णं पुणवि गवेसउ माउ भाणु ।11 जिणु संभरंतु संचलिउ धीरु वणि हिंडइ रोमंचियसरीरु ॥
यों ऐसा नहीं है कि कवि धनपाल अलंकारों का प्रयोग नहीं करते लेकिन कथासंगठन के मूल्य पर अलंकार-चित्रण से वे दूर ही रहते हैं । युद्ध-वर्णन के प्रसंग में भी कवि अलंकारों के मोह में नहीं पड़ता बल्कि राजदूत, राजा एवं रानी, मंत्रीगण तथा सेनापतियों आदि के बीच गम्भीर मंत्रणा दिखाकर अपने कथा-संगठन की कुशलता को ही दिखाता है । इससे वर्णन सीधे और सपाट ही रहे हैं ।
इस संदर्भ में डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन का यह कथन उल्लेखनीय बन गया है"अलंकृत शैली की अपेक्षा धनपाल काव्य को मनुष्यहृदय के निकट रखना अधिक पसन्द करते थे। थोड़ी सी अतिरंजना और धार्मिक अंश को छोड़कर उनकी रचना लोक-हृदय के बहुत निकट है।"12
वास्तविकता यही है कि महाकवि धनपाल अपनी इस कथाकृति से सत्-असत् का अन्तर समाज के सम्मुख लाना चाहते हैं। एक श्रेष्ठी की दो पत्नियां-कमलश्री और सरूपा जब अपने पुत्रों को शिक्षा देती हैं तो कवि धनपाल मनोवृत्तियों का अन्तर स्पष्ट कर देते हैं
को जाणइं कण्णमहाविसइ अणुदिणु दुम्मइमोहियई। समविसम सहावहिं अंतरई दुट्ठसवत्तिहि बोहियई ॥ 3.10