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जैन विद्या
अर्थात् यद्यपि सब कर्म दैवाधीन हैं तथापि मनुष्य को अपना उद्योग तो करना ही
चाहिए ।
इसी प्रकार महाकवि धनपाल की मान्यता है कि जैसे दुःख अनिच्छा या यच्छा से आता है, वैसे ही सुख भी सहसा श्रा जाता है
श्रइच्छिई होंति जिम तुक्खाई, सहसा परिरणवंति तिह सोक्खई ।
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3.17.8
परस्त्री के प्रति आसक्ति की वर्जना भारतीय नीति के प्रमुख सिद्धान्तों में अन्यतम है । इसी तथ्य को महाकवि धनपाल ने 'भविसयत्तकहा' में ततोऽधिक प्रभावकता के साथ उपस्थापित किया है-
जोव्वर वियार रसवसपसरि सो सूरउ सो पंडियउ । चल मम्मरणवयणुल्लावएहिं जो परतिग्रहं ग खंडियउ ॥
3.18.9
अर्थात्, वही शूर है और वही पण्डित भी है, जो यौवन-विकारों के प्रसार की स्थिति में रागवश परस्त्रियों के चंचल कामोद्दीपक वाग्विलास से खण्डित ( प्रभावित ) नहीं होता ।
परहो सरीरि पाउ जो भावद्द, तं तासइ वलेवि संतावद ।
इसी प्रकार, लोकनीति यह है कि मनुष्य पापदृष्टि होने की अपेक्षा पुण्यदृष्टि बने । इसीलिए महाकवि धनपाल कहते हैं कि जो किसी दूसरे के प्रति पापाचार की भावना रखता है वह पाप उलटकर उसे ही सन्तप्त करता है—
6.10.3
कहना न होगा कि 'भविसयत्त कहा' में इस प्रकार के प्रभावकारी सुभाषितों का बृहद् ग्राकलन उपलब्ध होता है जिन्हें स्वतन्त्ररूप से एकत्र किया जाय तो अपभ्रंश साहित्य की ओर से समग्र भारतीय वाङ्मय के लिए सारस्वत अवदान के रूप में एक महा सुभाषितावली सुलभ हो जाय ।
सुभाषितों के अतिरिक्त 'भविसयत्तकहा' में लोकविश्वास और लोकरूढ़ि से सम्बद्ध विविध तथ्यों का भी विपुल विन्यास हुआ है । पुनर्जन्म, कर्मसिद्धान्त, शकुनशास्त्र, लोकसंस्कार एवं अलौकिक घटनाओं आदि के अध्ययन - अनुशीलन की दृष्टि से तो यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति का महार्णव ही है ।
यह महाकाव्य काव्यशास्त्रीय अलंकारों 'अध्ययन की दृष्टि से भी प्राकर-ग्रंथ की महत्ता को प्रायत्त करता है । उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वभावोक्ति, विरोधाभास आदि अर्थालंकारों