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जैनविद्या
के प्रयोग तो अतिशय हृदयावर्जक बन पड़े हैं । उपमानों के प्रयोग में तो महाकवि धनपाल
ने
प्रस्तुत को अप्रस्तुत और अप्रस्तुत को प्रस्तुत अर्थात् मूर्त को अमूर्त और अमूर्त को मूर्त रूप देने में ततोऽधिक कारुकारिता से काम लिया है । उपमा का एक प्रायोदुर्लभ उदाहरण द्रष्टव्य है
दिक्खs गिग्गयाउ गयसालउ, कुलतियउ विरणासियसीलउ । fores तुरयबलत्थपएसई, पत्थरभंगाई व विगयासई ।
4.10.4
अर्थात् उसने गजरहित गजशालाओं को देखा जो उसे शीलरहित कुलीन स्त्रियों के समान प्रतीत हुईं और अश्वरहित अश्वशालाएँ ऐसी दिखाई पड़ीं जैसे प्राशारहित भग्न प्रार्थनाएँ ।
इस अवतरण के पूर्वार्द्ध में अमूर्त को मूर्त तथा उत्तरार्द्ध में मूर्त को अमूर्त रूप में उपस्थापित करने में महाकवि ने अवश्य ही अपनी सुदुर्लभ कवित्व शक्ति का परिचय दिया है ।
प्रस्तुत के अप्रस्तुत रूप में विनियोग का एक और पूर्व उदाहरण इस प्रकार है"णं वम्मह भल्लि विधंसरखसील जुवारण जरिग" (5.8.9) अर्थात् वह सुन्दरी युवकों के हृदयों को बींधनेवाले कामदेव के भाले के समान थी । महाकवि ने उपमा का प्रयोग केवलमात्र अलंकार - प्रदर्शन के लिए न करके गुण की सम्प्रेषणीयता और क्रिया की तीव्रता के लिए किया है । इस उपमा से यह प्रतीत होता है कि वह सुन्दरी अतिशय श्राकर्षक और ग्रामन्त्रक रूप- सुषमा से विमण्डित थी ।
"भविसयत्तकहा” छन्दःप्रयोग की दृष्टि से भी उत्तम महाकाव्य है | महाकवि धनपाल के इस महाकाव्य में मात्रिक और वाणिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है किन्तु प्रचुरता मात्रिक छन्दों की ही है । वारिंणक छन्दों में भुजंगप्रयात, लक्ष्मीधर, मन्दार, चामर, शंखनारी श्रादि उल्लेख्य हैं तो मात्रिक वृत्तों में पज्झटिका, अडिल्ला, दुबई, प्लवंगम, सिंहावलोकन, कलहंस, गाथा | आदि की प्रमुखता है । इस प्रकार शिल्पगत रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से यह महाकाव्य काव्यजगत् में कूटस्थ स्थान अधिगत करता है ।
कथ्य या वस्तु के वर्णन की दृष्टि से भी इस महाकाव्य की अपनी अपूर्वता है । इसकी मूलकथा 'लौकिक होते हुए भी अपनी काव्यगरिमा से अलौकिक बन गई है । इसका नायक भविसयत्त ( भविष्यदत्त) ख्यातवृत्त नहीं है अपितु, एक व्यापारी- पुत्र है | महाकवि धनपाल ने सामान्य व्यापारी - पुत्र को अपने महाकाव्य का समस्तगुणालंकृत नायक बनाकर