Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 61
________________ जैन विद्या 55 ख्यातवृत्त नायक की परम्परा का भंजन किया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि महाकवि धनपाल से ही अपभ्रंश-काव्य की रचना-पद्धति में लौकिक नायक की परम्परा का सूत्रपात हुआ है । इस महाकाव्य की कथा को तीन प्रकररणों में विभक्त किया जा सकता है, यद्यपि मूल ग्रंथ में इस प्रकार का कोई विभाजन नहीं हुआ है। प्रथम प्रकरण में एक व्यापारी के पुत्र भविसयत्त की सम्पत्ति का वर्णन है । भविसयत्त अर्थात् भविष्यदत्त अपने वैमातृक भाई बन्धुदत्त से दो बार वंचना पाकर कष्ट सहन करता है किन्तु अन्त में उसे अपने जीवन में सफलता प्राप्त होती है । द्वितीय प्रकरण में कुरुनरेश और तक्षशिलानरेश में युद्ध होता है। भविष्यदत्त उस युद्ध में प्रमुखरूप से भाग लेता है और अंत में विजयी होता है । तृतीय प्रकरण में भविष्यदत्त तथा उसके साथियों से पूर्वजन्म और भविष्यजन्म का वर्णन है । जैनों में प्रसिद्ध श्रुतपंचमी व्रत का माहात्म्य प्रदर्शन ही इस महाकाव्य का रचनात्मक लक्ष्य है जो कथा के आरम्भ में और अन्त में भी उपन्यस्त हुआ है । धार्मिक विश्वास के साथ अलौकिक घटनाओं का समावेश भारतीय कथा - परम्परा में रूढ़िबद्ध रहा है। गृहस्थ जीवन के स्वाभाविक चित्र से विभूषित इस महाकाव्य में भी यक्ष द्वारा की गई अलौकिक सहायता का निर्देश है। सच पूछिये तो यथार्थ और श्रादर्श, इतिहास प्रोर कल्पना, दोनों के मनोरम समन्वय से यह महाकाव्य एक अतिशय रोचक तथा अत्यन्त प्रभावक महान् उपन्यास का श्लाध्यतम व्यक्तित्व आत्मसात् करता है । "भविसयत्तकहा " का वस्तुवर्णन बहुत ही सहज प्रतएव प्रकृत्रिम बन पड़ा है । ऐसा इसलिए हो पाया है कि कवि की अभिव्यक्ति में उसकी हार्दिक अनुभूति का सहज योग हुआ है । कवि-कल्पना कहीं भी किसी प्रकार से भी बलानीत नहीं प्रतीत होती और न अनावश्यक स्फीत ही । इस संदर्भ में नात्यधिक शब्दों में गजपुर की समृद्धि और सौंदर्य की मनोहारी अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है तहि गयउ गाउं पट्टणु जगजरियच्छरिउ । णं गयणु मुएवि सग्गखंडु महि श्रवयरिउ || 1.5.11 अर्थात् "मनुष्यों को श्राश्चर्य में डाल देनेवाला यह गजपुर नगर ऐसा लगता है जैसे स्वर्ग का एक खण्ड स्वर्ग को छोड़कर धरती पर उतर श्राया हो ।" किसी समृद्ध नगर की स्वर्ग खण्ड से तुलना की परम्परा आदिकवि वाल्मीकि के काल से ही चली आ रही है। उन्होंने अपने प्रादिकाव्य "रामायण" में लंका नगरी की तुलना स्वर्गखण्ड से की है । पुनः महाकवि कालिदास ( ईसापूर्व प्रथम शती) ने "मेघदूत" में उज्जयिनी की और उनके परवर्ती महाकवि स्वयम्भू ( 8 वीं शती) ने "रिट्ठणे मिचरिउ " ( हरिवंश पुराण ) में विराट नगर की तथा महाकवि पुष्पदंत (10 वीं शती) ने " महापुराण" में पोतन नगर की तुलना स्वर्गखण्ड से ही की है ।

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