Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 68
________________ जनविद्या धरणवइ सुठ्ठ समुण्णयमारणलं, अणुदिणु दिग्णु रिपरन्तरवारण । पुत्तविचित्तगुरिणहि परितुट्ठउ, सलहइ परिणिहि पुरउ पहिउ । पिए सावपण एह रणउ दोसइ, मच्छुड़कुलि उज्जोउ करेसइ । पोमलच्छि विहसेविणु जंपइ, पुण्णोदइण काई ण समप्पइ । रुक्खहो णामि फलु संबज्झइ, कि अंबई मामलउ रिणबज्झइ । जो तउतरणइं अंगि उप्पण्णउं, तासु सरीरि होइ कि दुग्णउं। 2. 3. 4-9 "प्रवास प्रागत" का एक "उत्कंठा चित्र" तब उपलब्ध होता है जब हमारे प्रमुख पात्र का वैमात्रेय प्रवास से लौटता है । इसमें लोचन स्फुरण, काग द्वारा प्र गमन की सूचना का संसर्जन, "आवेग", "आशंका", "हर्ष", "अविश्वास" आदि संचारियों का सहवर्तन और "अश्रु", "स्वरभंग" प्रादि सात्विकों का अनुभावन है सुयविनोयउम्बाहुलिहूहि, वामउ लोयणु पुरइ सरुमहि । कुरुलिउ वायसेण घरपंगणी, भणइं सावि प्राहल्लिय नियमणि । कुरुलहि काई अलिउ असुहावउ, बंधुप्रत्तु परदेसहो पावर। 8. 1. 3-5 गयवइयहि कम्मइं मिल्लिई नयणइं हरिसंसुजलोल्लियई। पियकुसलाकुसलु करतियई चित्तई संदेहविउंबियइं ॥ 8. 1. 11-12 बरिणबइ असुजलोल्लियनयरणउं पुच्छइ पुणवि सगग्गिरवयणलं महो कि सच्च एउ पई जंपिउ, किंपि वियारहि करहि मुहप्पिउ। 8.2.1-2 विठ्ठ विदु रहसेण पपाइय अवरुप्पर प्रावीलिय साइय। सुपरहिं असुजलोल्लियनयरिणहिं पुच्छिउ कुसलु सुहासियवयरिणहि । झल्लरिपडहसंखनिग्धोसि, पट्टणि पइसरति परिमोसि। 8 3. 9-11 बंधुयत्तु वरभवरिण पइट्ठउ उक्कंठियउ जणेरहि विट्ठउ । पाणंदसमागमगम्भियइं संभासगवयगई थभियइं। सहसत्ति न सक्किउ जोयणिहिं हरिसंसुगलत्थियलोयणिहिं। 8. 4. 6-8 "प्रवास प्रागत" का एक "गर्व चित्र" तब उभरता है जब हमारा प्रमुख पात्र घर लौटता है । "स्मृति", "हर्ष", "प्रावेग", विषाद", "चपलता", "अविश्वास", "दैन्य", "विनय", "जड़ता" प्रादि भाव सहवर्ती हैं और "स्तंभ", "प्रलय" प्रादि सात्त्विक संसृष्ट । दुक्खु दुक्खु नियमणि संजोइउ. पुणु पणु पुत्तहो वयण पलोइउ । हाकिम वणि हिंडिउ असहायउ, महु पुत्त प्रज्जु पणु जायउ । हा गिरिकंदरि केम पइट्ठा हा सुन्नउं पुरु भमिउं अपिट्ठउ । हा पुरु सयलु जेण संघारिउ कह न तेण निसियरिण वियारिउ । हा सुन्नंगणि होइ उवदउ परिभमंति निसियरउ रउद्दउ । एम करेवि सुइर कूवारउ, पुणु पुणु सिरु चुंबिउ सयवारउ । 9. 15

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