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जैनविद्या
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9. रसप्रक्रिया में संवाद का विशेष महत्त्व है। 10. रससम्बन्धी कोई दृष्टि मिथ्या नहीं है-पर्याय है, और सभी के एकाधिष्ठान में संमिश्रण
के कारण।
वात्सल्य तथा सजातीयभाव-"रुद्रट्" "प्रेयान्"13 और "सोमेश्वर" स्नेह को वात्सल्य कहते हैं-अनुत्तम में उत्तम की रति 114 "भोज" द्वारा यह सुनिर्दिष्ट है, "हरिपालदेव" द्वारा पुष्ट16 तथा "विश्वनाथ" द्वारा प्रतिष्ठित ।।
"मंदारमंदचंपूकार" करुणा18 और "कवि कर्णपूर" ममता19 को इसका स्थाया बताते हैं । हमारे "सरसइ संभविण" कवि द्वारा इसका एक "प्रसन्न-सौन्दर्य-चित्र" तब उकेरा गया है जब वह "नव-कदली-गर्म" सदृश "भविसयत्त" के बाल-सहज चंचल स्वभाव को “लोकानुवृत्ति", "स्वभावोक्ति" एवं “साधारणीकरण" की प्रक्रिया में ढालने को उद्यत हुआ है । बाल की क्रीडा-क्रियाएं सहज स्फुरणशील हैं-मां के स्तनों को हाथ से स्पर्श करते हुए दुग्धपान, "वरिवनितानों के केशों का ग्रथन," "टहोके से हंसना," "वक्ष में स्पर्श से गुदगुदी होना" "चरणों से स्तनहारों का दलना", "धवल तारहारों को खींचना--तोड़ना"
आदि उद्दीपन हैं, "प्रिय-परिजनों का प्राकर्षण होना", "हाथों-हाथ उठाए घूमना", "गोद में छिपाए रखना", "सिंहासन पर सुलाना-बैठाना" प्रादि अनुभाव और "हर्ष", "प्रावेग", "मोह", "प्रौत्सुक्य", "गर्व", "चपलता", "उत्साह" आदि संचारी हैं। इसके पीछे परिकर-परिवार की अतृप्त आकांक्षामों, प्रेम, प्राकर्षण आदि की विभिन्न कक्षा, तीव्रता मोर वेग की झलक है
अहिणवरंभगम्भसोमालउ धरणवइघरि परिवड्ढइ बालउ । कमलसिरिहि पीणुण्णयसट्टई, पिल्लिवि हातु पियइ थणवट्टइं। हत्थिहत्य भमई जविंदहो, चरियसुहावहु सुठ्ठ गरिदहो। रणरणाहिं सइं अंकि लइज्जइ, चामरगाहिणोहि विज्जिज्जइ । पवर विलासिणीहि चुंबिज्जइ, अहिं पासिउ अहिं लिज्जइ । सोहासणसिहरोवरि मुच्चइ, वरविलयहि सिरि कुरुलई लुचइ । कोक्कोउ हसइ वियारहं वंकइ, महतु समप्पइ उसरहिं डंकइ । चुंबिज्जंतु कवोलई चीरह, गलि लग्गंतु धरहि अहिं खीरह। कोमलपयहि दलइ थणहारइं, पाखंचिवि तोडइ सियहारइं। 2. 1.
इसका "हर्ष", "गर्व", "मावेग", "उत्साह" प्रादि से सहवर्तित "आत्मतोष चित्र" तब दीख पड़ता है जब धणपति पुत्र की उपलब्धियों पर श्लाघा में दत्तचित्त रहता है और पत्नी गर्व संभार को विस्तृत करती हुई लोकोक्ति तक पहुंच जाती है । इसके पीछे "पाशा", "शृगार" और "आत्माभिमान" की झलक-झलमलाहट है