________________
भविसयत्तकहा का साहित्यिक महत्त्व
-डॉ० प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति'
भारतीय साहित्य की एक सुदीर्घ परम्परा का इतिहास अपभ्रंश साहित्य है। अपभ्रंश वाङमय वैविध्य के मान से सीमित है। विधागत विविधता चाहे इस साहित्य में न हो पर प्रामाणिकता में यह बेजोड़ है । प्राध्यात्मिक जीवन की जितनी अनुभूतियां इस साहित्य में हैं उतनी ही लोक-संस्कृति की छवियां भी इसमें अंकित हैं। अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-1. पुराणकाव्य 2. चरितकाव्य । शिल्प की दृष्टि से पुराणकाव्य और चरितकाव्य में अन्तर है । पुराणकाव्य में प्रलौकिकता का विस्तार, अवान्तरकथानों की भरमार तथा पौराणिक रूढियों की प्रचुरता होती है जबकि चरितकाव्यों में अलौकिकता का संकोच, वस्तुविन्यास में धारावाहिकता और निश्चित योजना, धार्मिकता की जगह लौकिकता का पुट अधिक होता है । अवान्तरकथा का यदि नियोजन है तो वह सप्रयोजन है तथा मूलकथा के उद्देश्य का निर्वाह करने के लिए है। चरितकाव्य का मूलस्वर कथा-काव्य का ही स्वर है । चरितकाव्य अथवा कथाकाव्य की दो धाराएं हैं-1. रोमाण्टिक चरितकाव्य 2. धार्मिक चरितकाव्य । रोमाण्टिक तथा धार्मिक चरितकाव्यों का समापन लोकोत्तर महान् उद्देश्यों की सिद्धि या साधना में होता है । तथापि रोमाण्टिक चरितकाव्यों में धार्मिक काव्यों की तुलना में कल्पना और मानवी सम्बन्धों की उड़ान कुछ स्वच्छंद है। कथावस्तु अधिक