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जैनविद्या
इस उपमा से स्पष्ट है कि वह सुन्दरी अत्यन्त प्राकर्षणशील थी। उपमा का प्रयोग कवि धनपाल ने संस्कृत में बाण के ढंग पर भी किया है ।28 ऐसे स्थलों में शब्दगत साम्य के अतिरिक्त अन्य कोई साम्य दो वस्तुओं में नहीं दिखाई देता है यथा
दिढ बंधई जिह मल्लरगणाइ पिल्लोहई जिह मुणिवर मणाइ ।
णिम्भिण्णई जिह सज्जणहियाई प्रक्रियत्थई जिह दुज्जणकियाई।। 3.23.1 उपमा के कई रूप दृष्टिगोचर होते हैं । मूर्त और अमूर्त भाव में साम्य दर्शनीय है यथा
तेरण वि ठ्ठि कुमारु प्रकायर, वडवाणलिण नाइं रयणायर ।
15.18 विरोधाभास अलंकार की अभिव्यक्ति निम्नलिखित स्थल में दृष्टिगत है
प्रसिरिवसिरिवत्त सजलवरंग वरंगणवि ।
मुद्घवि सवियार रंजणसोह, निरंजणवि ॥ 11.6.12 निदर्शना अलंकार का निदर्शन भी प्रस्तुत है--
जं सुहु असणेहं रच्चंतए जं सुहु अंधारइ नच्चंतए ।
जं सुहु सिविणंतर पिच्छंतए तं सुहु एत्य नयरि अच्छंतइ ॥ 6.15.3-4 कविश्री की उर्वर एवं अनुभूतिमयी कल्पना का परिचय अलंकारयोजना में परिलक्षित है। कविश्री धनपाल को उपमा अलंकार विशेष प्रिय है।
छन्द-योजना
विवेच्य कथाकाव्य में वर्णवृत्त और मात्रिक छन्द दोनों का प्रयोग हुआ है परन्तु अधिकता मात्रिक छन्दों की है। वर्णवृत्तों में भुजंगप्रिया, मंदार, चामर तथा लक्ष्मीधर प्रादि विशेष उल्लेखनीय हैं। मात्रिक छन्दों में पज्झटिका, अडिल्ल, दुवइ, काव्य, पिलेवंगम, सिंहावलोकन, कलहंस तथा गाथा मुख्य हैं ।29 इसके अतिरिक्त काव्य में उल्लाल, अभिसारिका, मन्मथतिलका, कुसुमनिरतंर, विभ्रमविलासित, वदन, नवपुष्पंधय, किन्नर, मिथुनविलास, मर्कटी, पत्ता, शंखनारी, मरइट्ठी छन्दों के भी अभिदर्शन होते हैं ।30 . वस्तुतः अपभ्रंश के प्रबंधकाव्यों की 'कडवकबंध' शैली कवि-काव्य में प्रयुक्त है । विचार-दर्शन
कविश्री धनपाल की कृति 'भविसयत्तकहा' जिनसिद्धान्तों से अनुप्राणित है। जन्म-जन्मांतर और कर्मसिद्धान्त पर कवि को पूरा विश्वास है ।31 शकुनों में भी