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जैन विद्या
घरि घरि मंगलई पघोसियाइं घरि घरि मिहणइं परिमोसियाई। घरि घरि चच्चरि कोऊहलाई घरि घरि अंदोलयसोहलाई।
घरि घरि कय वत्थाहरणसोह घरि घरि माइट महाजसोह। 8.9 इस प्रकार प्रकृतिवर्णन में मानवीय रूपों तथा भावों की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। भाषा-सौष्ठव
कविश्री धनपाल की भाषा कसावट तथा संस्कृत शब्दों के प्रति झुकाव होने के कारण साहित्यिक अपभ्रंश है तथा उसमें लोकभाषा का पूरा पुट है अतएव एक ओर जहां साहित्यिक वर्णन तथा शिष्ट प्रयोग हैं दूसरी मोर वहाँ लोक-जीवन की सामान्य बातों का विवरण घरेलू वातावरण में वरिणत है । शब्दों में 'य' श्रुति और 'व' श्रुति का प्रयोग प्रचुर है जैसे कलकल कलयल, दूतव । विशेषण-विशेष्य के समान वचन के नियम का व्यत्यास भी प्रम्हहं एत्थु बसन्त हो (3. 11. 7) में दिखाई देता है । 25
कविश्री के द्वारा भाषा को बल देने के लिए लोकोक्तियों और मुहावरों का तथा अनेक सूक्तियों और सुभाषितों का प्रयोग उल्लेखनीय है। कतिपय सूक्तियाँ प्रस्तुत हैं
1. कि घिउ होइ विरोलिए पारिणए ।
2.7.8 2. जंतहो मूलु वि जाइ लाहु चितंतहो ।
3.11.5 3. कलुणइ सुमीस करयल मलंति विहुणंति सीस ।
3.25.3 4. अणइच्छियइं होंति जिम दुक्खई, सहसा परिणति तिह सोक्खई ।
3.17.6 5. जोव्वरणवियाररसवसपसरि सो सूरउ तो पंडियउ ।।
चलमम्मणवयणुल्लावएहिं जो परितियहिं ण खंडियउ ।। 3.18.9 6. परहो सरीरि पाउ जो भावइ तं तासइ वलेवि संतावइ । 6.10.3
7. जहा जेण दत्तं तहा तेण पत्तं इमं सुच्चए सिट्ठलोएण वुत्तं । - सुपायन्नवा कोद्दवा जत्त माली कहं सो नरो पावए तत्थ साली। 12.3.24-25
प्रस्तुत काव्य में बहुत से शब्द इस प्रकार के प्रयुक्त हुए हैं जो प्राचीन हिन्दी कविता में यत्र-तत्र दिखाई दे जाते हैं और कुछ तो वर्तमान हिन्दी में सरलता से खप सकते हैं 26 चाहइ, चुणंति-चुनना, इंदिय खंचहु, च्छड रस रसोई (पृ. 47), सालि दालि सालणय पियारउ-चावल, दाल और सब्जी (पृ. 47), पच्छिल पहरि (पृ. 59), तहु प्रागमो चाहहो-उसे पाना चाहिये (पृ. 59), राणी, तज्जइ-तजना, चडिउ विमाणु