Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 33
________________ जैन विद्या 27 - काव्यत्व की दृष्टि से "भविसयत्तकहा" सफल अपभ्रंश कथाकाव्य है जिसमें परंपरित कथारूढ़ियों, सामाजिक मान्यताओं, धार्मिक अभिरुचियों आदि का चित्रण तो हुआ ही है साथ ही साथ कवि उदात्त जीवनमूल्यों में गहरी आस्था जगाने में भी सफल हुअा है । यही मेरी दृष्टि से महाकवि धनपाल की प्रसिद्धि का मूल कारण भी है । डॉ० नामवरसिंह के ये शब्द मुझे सटीक लगते हैं --"काव्य-कला की दृष्टि से धनपाल की यह कृति स्वयंभू और पुष्पदन्त के बाद का गौरवपूर्ण स्थान पाती है ।"17 अपभ्रंश भाषा के इस गौरवशाली महाकवि की कथाकृति का मूल्यगत विवेचन यदि किया जाए तो हमें 10वीं शती के समाज, संस्कृति, धर्म, दर्शन, साहित्य, कला और अर्थशास्त्र का व्यापक परिचय मिल सकेगा, यह मेरा विश्वास है। 1. अपभ्रंश भाषा और साहित्य को शोध-प्रवृत्तियां, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृष्ठ-32 2. वही, पृष्ठ-34 3. 'भविसयत्तकहा' की पुष्पिका-'धरणवालिं तेण पंचमी पंचपयार किय', 22.11 ----- 4. Bhavisayattakaha of Dhanpala Ed. P. D. Gune, Introduction, Page-1 5. जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ-408 6. वही, पृष्ठ-409 7. वही, पृष्ठ-410 8. प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य, डॉ. रामसिंह तोमर, पृष्ठ-118 9. वही, पृष्ठ-120 10. भविसयत्तकहा, सम्पादक-पी. डी. गुणे, 1.5.4-5 11. वही, 4.5 12. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ-74 13.. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवर सिंह, पृष्ठ-178 (प्रथम सं.) 14. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, पृष्ठ-74 15. भविसयत्तकहा, सम्पादक-पी. डी. गुणे, 5.1.1-5 16. 'पारंपर कव्वहं लहिविभेइ मई झंखिउ सरसइवसिण एउ', भविसयत्तकहा, 14.20.17 17. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृष्ठ-178

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