Book Title: Jain Vidya 04
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 18
________________ जैनविद्या कमलश्री जैसी गुणवती स्त्री को छोड़ देता है । भविष्यदत्त के चरित्र में कवि ने सभी आदर्श-रूपों की प्रतिष्ठा स्वाभाविक साहचर्य से संयुक्त की है। वह वैश्य कुलोत्पन्न होने पर भी अपने गुणों से महान् पुरुष बन जाता है अतः धनपाल ने प्रसिद्ध महापुरुष की कथा को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उसके चरित्र के विकास में कवि ने अपने कौशल का परिचय दिया है। उसके व्यक्तिगत स्वभाव के साथ ही राजा को उपहार देकर प्रसन्न एवं अपने पक्ष में करने के उसके वैश्य जाति के लिए उचित जातिगत व्यवहार का चित्रण करना कवि मूलता नहीं। काव्य के प्रथम खण्ड में धनवइ, कमलश्री और सरूपा के चरित्र प्रमुख हैं और द्वितीय खण्ड में भविष्यदत्त का चरित्र अपने चरम विकास पर है। रस व्यञ्जना-भविसयत्तकहा की मख्य कथा से वीर रस का घनिष्ठ संबंध है किन्तु वह परिणति में शृंगार से सम्बन्धित है क्योंकि युद्ध-वर्णन के मूल में राज्य-प्राप्ति न होकर स्त्री की संरक्षा है अतः इस काव्य में वीर रस प्रधान न होकर शृंगार रस ही प्रमुख है । कथा का पर्यवसान शान्त रस में हुआ है । इस काव्य में कवि ने उदात्त-प्रेम का निरूपण करते हुए शृंगार की व्यंजना की है । इसमें शृंगार के संयोग और वियोग दोनों रूपों का चित्रण है । वात्सल्य का वर्णन भी दो-एक स्थलों पर सुन्दर बन पड़ा है । यह व्यंजना स्वाभाविक रूप से हुई है । माता कमलश्री को ममतामयी भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। इस काव्य में वियोग-वर्णन रीति-परम्पग से ग्रस्त मानवीय भावनाओं का प्रदर्शन न होकर मनुष्य-जीवन की वास्तविक अनुभूतियों से निष्पन्न हुआ है। संवाद-योजना---प्रस्तुत कथाकाव्य में प्रबन्धकाव्य के उपयुक्त संवाद-योजना हुई है। संवादों की तो इसमें प्रचुरता है जिनमें नाटकीयता, अभिनेयता, वाक्चातुर्य, कसावट, मधुरता तथा हाव-भावों का प्रदर्शन एवं यथास्थान व्यंग्य का समावेश हुअा है । संवाद कथानक को गतिमान करने के साथ ही वातावरण तथा दृश्य को भी नेत्रों के समक्ष रूपायित कर देते हैं । इन संवादों की कसावट, सरसता तथा मधुरता अपनी विशेषता रखती है । भविष्यदत्त का माता के वात्सल्यपूर्ण उद्गारों के प्रति यह कथन देखिए भविसयत्तु विहसेविण जपइ तुम्हहं भीरत्तणिण समप्पइ । प्रइयारि वामोहुण किज्जइ समवयजरिण पोढत्तणु हिज्जइ ॥ 3.12 शैली---प्रस्तुत कथाकाव्य में अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों की कडवकबन्ध शैली प्रयुक्त है । कडवकबन्ध सामान्यतः दस से सोलह पंक्तियों का है । कडवक पज्झटिका, अडिल्ला या वस्त से समन्वित होते हैं । सन्धि के प्रारम्भ में तथा कडवक के अन्त में ध्रवा, ध्रुवक या पत्ता छन्द प्रयुक्त हैं । घत्ता नाम का एक छन्द भी है किन्तु सामान्यतः किसी भी छन्द को 'घत्ता' कहा जा सकता है । भाषा--राहुलजी ने धनपाल की भाषा को 'पुरानी हिन्दी', मैनारियाजी ने 'पुरानी राजस्थानी', डॉ. हर्मन जैकोबी ने 'उत्तरप्रदेश को एक बोली' माना है । डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री का स्पष्ट मत है 'धनपाल की भाषा साहित्यिक अपभ्रंश है, पर उसमें लोकभाषा

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