________________
महाकवि धनपाल की
काव्यप्रतिभा
-डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा "मरण"
भारतीय आर्यभाषाओं के विकासक्रम में मध्यकालीन आर्यभाषामों-प्राकृत एवं अपभ्रंश का जो विपुल साहित्य अब उत्तरोत्तर विवेचित होकर हमारे समक्ष प्रा रहा है, उससे मध्यकालीन मार्यभाषा की अत्यन्त समृद्ध कथा-परंपरा भी उभर कर सामने आई है।
अपभ्रंश साहित्य बहुमुखी एवं बहुआयामी रहा है । प्राकृत भाषा के कथा-साहित्य से प्रेरणा लेकर अपभ्रंश कवियों द्वारा रचे गए कथाकाव्यों की एक सुदीर्घ एवं सुपुष्ट परंपरा अाज हमें मिलती है। डॉ देवेन्द्रकुमार शास्त्री का एक कथन मैं इसलिए यहां उद्धृत करना चाहता हूँ, जिससे स्पष्ट हो सके कि लिखित कथाकाव्य परंपरा का आधार मूलत: लोकाख्यान ही रहे हैं । डॉ. देवेन्द्र का कथन है- “यद्यपि लोकाख्यान सहस्रों वर्षों से जन-जन की भाषा में प्रत्येक देश में मौखिकरूप से प्रचलित रहे हैं, किन्तु उनका लिखित रूप बहुत प्राचीन नहीं है। साहित्य-लेखन की परम्परा के प्रचलित हो जाने के बहुत बाद लोकाख्यानों का सन्निवेश काव्यात्मक रूपों में संस्कृत और तदनन्तर प्राकृत-साहित्य में किया गया ।"1
संस्कृत-लोकाख्यानों में जहां धर्म प्रधान हो गया, वहीं प्राकृत भाषाओं में रचित कथा-साहित्य लोकजीवन से गहरा जुड़ गया है और धार्मिक जीवन को भी यहां लोक