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प्रथम अहिरवेद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व)
इस प्रकार समस्त काव्य लक्षणों के आलोक में जहाँ पाश्चात्य काव्य शास्त्रियों ने कल्पना, सौन्दर्य और दर्शन को काव्य का प्रमुख तत्त्व स्वीकार करते हुए उसे अलौकिक आनन्द का प्रमुख साधन बताया है, वही जैनाचार्यों ने काव्य को धर्म और दर्शन के दुरूह सिद्धान्तों को सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए माध्यम बनाया है। जैनाचार्यों ने संस्कृत काव्याचार्यों के मतों का अनुकरण करके अपने काव्य लक्षण को प्रस्तुत किया है और संस्कृत काव्याचार्यों की तरह ही 'रस' को उसकी आत्मा स्वीकार किया है।
संस्कृत काव्य के अति प्राचीन मनीषियों ने धर्मानुप्राणित सत्य की प्रतिष्ठा हेतु काव्य के उद्भव को स्वीकार किया है। वहीं उनसे अर्वाचीन काव्यशास्त्रियों ने काव्य के "शब्दार्थों" मानकर उसमें सत्य की प्राण-प्रतिष्ठा हेतु प्रयास किया है, और ब्रह्मानन्द सहोदर 'रस' को काव्य की आत्मा स्वीकार किया है।
इस प्रकार काव्य उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्तों का सर्व सामान्य उल्लेख न वेदों, न पुराणों और न ही उपनिषदों में प्राप्त होता है। वहाँ सङ्केत मात्र अवश्य दिये गये है, जो काव्यशास्त्रियों के लिए प्रकाश रूप है। क्योंकि आज भी उन्हीं के खण्डन-मण्डन द्वारा काव्य विषयक नये-नये विचारों का उदय हो रहा है।
काव्य वैशिष्ट्य
यह
कहावत है
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