Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग। उससे पूछा कि क्या कर रहे हो ? वव उसने उत्तर दिया किभात वनः रहा हूं। यहां चावल और भातमें अभेद विवक्षा है। अथवा चावलोंमें भातका संकल्प है।
१० । अपनी जातिका विरोध नहिं करके अनेक विषयोंका एकपनले ग्रहण करे उसको संग्रह नय कहते हैं। जैसे-जीवके कहनेसे चारों गतिके सव जीवोंका ग्रहण होता है।
११ । संग्रह नयसे ग्रहण किये हुये पदार्थको विधिपूर्वक भेद करै सो व्यवहार नय है। जैसे जीवके भेद बस स्थावर आदि करने ।
१२ । पर्यायार्थिक नय चार प्रकारके हैं, अनुसूत्र.शब्द,सनभिसढ़ और एवंभूत।
१३ । भूत भविष्यतकी अपेक्षा नहिं करके वर्तमान पर्यायमात्रको ग्रहण करै सो ऋजुसूत्र नय है।
१४। लिंग, झारक, वचन, काल, उपसर्ग आदिके मेदसे जा पदार्थको भेदरूप ग्रहण कर उसे शब्द नय कहते हैं । जैसे-दार, भाया, कलत्र ये तीनों भिन्न २ लिंगके शब्द एक ही स्त्री पदार्थके वाचक है सो यह नय स्त्री पदार्थको तीन भेदरूप ग्रहण करता है इसी प्रकार कारकादिकके दृष्टांत जानने।
१५। अनेक अर्थोको कोड़कर जो एक ही अर्थमें रुद (प्रसिद्ध) हो, उसको जाने वा कहै सो समभिरूढ़ नय है । जैसे-गो शब्द के पृथ्वी गमन आदि अनेक अर्थ होते हैं तथापि मुख्यताले गो नाम गाय वा वैलका ही ग्रहण किया जाता है सो उसको चलते, वैठते सोते सव अवस्थामें सब लोग गो ही कहते हैं तथा पीला