Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग!
१२५ । तौ मालूम हुवा कि-चित्रोत्सवा और कुंडल मंडित मेरा शत्रु
विदेहाके गर्भ में है । इसको मेरी स्त्रीके हरणका दंड अवश्य देना ' चाहिये सो विदेहाके पैदा होते ही वह देव पुत्रको उठाकर ले गया • परंतु पीछे पापले भयभीत हो उसके कानोंमें कुंडल पहनाकर पर्णलब्धि नामक विद्याके द्वारा आकाशसे पृथिवीपर छोड़ दिया सो विजयाचके दक्षिणश्रेणीके रथनूपुरके राजा चंद्रगति नामक विद्याधरने आकाशसे पड़ा देख उसको उठा लिया और इसे प्रभावशाली बालक समझ अपनी पुष्पावती रानीकी जांघोंमें रखकर तेरे पुत्र हुवा कहकर जगाया और यह किसी बड़े कुलका पुत्र है कहकर समझा बुझाकर रानीकों पालनेके लिये राजी किया और पुत्रजन्मोत्सव करके विद्याधरने उसका नाम भामण्डल रक्खा।
इधर पुत्र हरा जान राजा जनक और विदेहाने बड़ा दुःख किया, सर्वत्र खोज कराई पता नहिं लगा। परंतु कन्याकी सुंद: रता देख संतोष किया। और इसका नाम सीता रक्खा । कुछ दिनों वाद वैताढ्य पर्वतके दक्षिण कैलास पर्वतके उत्तर भागमें अनेक अंतर देश हैं उनमें एक अर्द्धववर देशमें असंयमी जीवोंकी ही वसती है । वह देश महा गृह म्लेच्छोंसे भरा है । उस -देशमें मयूरमाला नगरीका म्लेच्छ प्रातरंगल नामकार राजा अनेक म्लेच्छोंकी सैना लेकर प्राया । देशोंको लूटता हुआ जनक राजाके देशोंको भी लूटनेकेलिये आया।महाराजा जनकने म्जेच्छोंको प्रवल समझकर महराज दशरथके पास दूत भेजकर राम लक्ष्मणकोवुलाया सो इन दोनों भाइयोंने पाकर समस्त म्लेच्छोंको