Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालबोधकबूंद और पाजाने दो फिर तो अवश्य हो चलूंगा। लाचार थोड़ी देर और ठहरकर बुलाया तो फिर भी वही बात तब वह विद्या'घर वहीं छोड़ कर अपने इष्ट स्थानको चला गया।
जिस प्रकार यह मनुष्य दुःखी था ठीक इसी प्रकार यह सं"सारी जीव इस संसाररूपी वनमें दुःख भोग रहा है। सफेद पौर काले दो चूहे दिन और रात में सो आयुरूपी जड़को काट रहे हैं हस्तीरूपी विकराल हमारी मृत्यु है सो सिरपर घूम रही है । - कूपमें चार सर्प थे सो चार गतियां है सो किसी न किसी गति में मर कर जाना है। और एक अजगर था सो निगोद राशि है सो अधिक पाप किया तौ निगोदमें जाना पड़ेगा। मधुमक्खिये . जो चारों तरफ शरीरको नोंच रहो वा काट रही हैं सो ये सब - कुटुंबके लोग है सो हर तरहसे संसारी जीव को दुःख देरहे हैं। वह विद्याधर था सो सुगुरु समान है । सुगुरु महाशय धर्मोपदेश देकर इस जीवको संसारके दुःखोंसे छुटा कर मोक्ष मार्गमें ले "जाना चाहते हैं परन्तु यह जीव जरासे इन्द्रियजनित सुखके लिये
सब दुःख भोग रहा है संसारका मोह छोड़ धर्म मार्गमें नहिं • लगता सो अवश्य ही नरकादिगतियों में दुःख भोगेगा।
५७. जकडी दौलतरामकृत. (२) वृषभादिजिनेश्वर ध्याऊं, शारद अंवा चित लाऊं। दैविधि-परिग्रह-परिहारी, गुरु नमहुं स्वपरहितकारी।