Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग ।
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दिया है कि - किसी जीवको किसी प्रकारकी पीड़ा नहिं देना इसे छोड़नेको आप क्यों कहते हैं? तब सोमशर्मा ने कहा कि भच्छा ! यह व्रत तौ रखना और सब छोड़ देना ।
प्रागे चलने पर नागधीने एक अन्य पुरुषको बंधा देखकर पूछा-1 - पिताजी इसने क्या अपराध किया था तब पिताने कहा कि यह झूठ बोलकर लोगोंको ठगा करता था इस लिये इसे बांध- कर लेजाते और पीटते हैं । नागश्रीने कहा - पिताजी मेरे व्रतमें एक यह भी व्रत है कि कभी झूठ नहिं बोलना सो यह भी तो अच्छा है इसे क्यों छुड़ाते हैं ? तव पिताने कहा कि अच्छा यह व्रत भी रख लेना चाकी सब छोड़ देना। आगे जाकर इसी प्रकार चोरी परस्त्रीगमन और लोभ वगैरह पापोंके अपराधियों को दंड पाते देखकर पिता से पूछा कि ये ही तौ व्रत मुझे मुनिमहाराजने दिये हैं इन्हे क्यों छोडूं । तव सोमशर्माने कहा कि अच्छा इन व्रतों को तो नहिं छोड़ना परंतु मुनियोंको जाकरके मुझे अवश्य कहना है कि- तुम्हें हमारे विना पूछे हमारी बेटीको व्रत देनेका क्या अधिकार है ? सो चल, वे नंगे मुनि कहां हैं सो नागश्रीका हाथ पकड़कर मुनियों के पास गया। दूरसे ही देखकर सोमशर्मा 'क्रोधित होकर बोला कि क्यों रे नंगों ! तुमने मेरी लड़कीको व्रत देकर क्यों ठग लिया बतलाओ तुम्हें इसका क्या अधिकार था ?
सूर्यमित्र मुनि महाराजने - सोमशर्माको उत्तेजित देख धीर· तासे कहा कि - भाई ! जरा धीरज घर क्यों इतनी जल्दी कर - रहा है ? मैंने इसे व्रत दिये है परंतु अपनी लड़की समझकर दिये हैं और वास्तव में यह लड़की है भी मेरी । तेरा तौ इस पर