Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 371
________________ चतुर्थ भाग । ३६३ 'विप-सरिस इंद्रिय विषय माया, अथिर पुदगल परियणु । आपनौ वर न कोड जाणो, जिया तुझको तुझविणु ॥२॥ चल चल पूर्व विदेह. रतनत्रय आराहिए। श्रौतरि श्रावग गेहि. आठवरसहि साहिए । करि तपु तीनहुँ काल गिरिसिरि तरुतलि चासिए । दुःसह सहि दुख झॉल, केवलज्ञान पर्यापिए ॥ · सहि दुसह झाल पयासि केवल, कम्म गहि तू कूड़यो। • चढि लोय-सिहरि पलोय तिवण, थान संगहि रुडओ ॥ वसु गुण विराउणि ( ? ) काय माया. सुद्धपय सिद्धहँ मिलु । पूरब विदेह विदेह अविचल, चेगि रे जिय चलु चलु ॥ ३॥ सोई सोहं देव, निवसौ काया-देहरै। लांधौ भवियण भेव, मेरो करम कहा करै ॥ जा सरि पुन न पाप, राउ विसाउन हौं करो। ५० सांभलहुं परम जिणंद जगगुरु, जीव अति गुणासुंदरो। आदिरहित अनंत सोहं, ज्ञानसुखगुणमंदिरो॥ दीनौं दिखाई एसाइ तुझको, गह्यौ गुड़ जिमि रंकवो । काय देहुरौ कहै साहणु, सोहं सोहं देव सो॥४॥ इति चतुर्थ भाग समाप्त । १ परिजन परिवारके लोग । २ तेरे बिना । ३ आराधिये । ४ साधिये । ५ आंच । ६ प्रकाशियें । ७ लोक शिखर । ८ सुन्दर । ९ लाधना अर्थात् प्राप्त करना । १० यहां एक चरण रह गया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 369 370 371 372 373 374 375