Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 370
________________ ૉર जैनवालवोधक रेजिय तू मति सोवहि नचीता वैरिनमैंका वास रे ॥ ३ ॥ ते जगमहिं जागे रे, रहे अंतरलौं लाइ रे । केवल विगत भया रे, प्रगटी जोति सुभाइ रे ॥ प्रगटी जोति सुभाइ रे जिवडे, मिथ्यारैन विहानी । सुपरभेदकारण जिन मिलिया, ते जाग हवा गांणो सुगरु सुधर्म पंचपरमेष्टी, तिनके लागों पाय रे । कहै दरिगह जिन त्रिभुवन सेवै, रहै अंतरलों लायरे ||४|| ( ३ ) जिया जगतके राय, सकति सँभालहु आपनी । तिहुं लागहि पाय, मुकनि मिले वर कामिनी ॥ भमियो काल अनादि, दुख देख्यौ सुख ना लहै । रहियौ जगतहिं काय, आठ करम अरि संग्रहै ॥ संग्रह करम अचेत जड़मय, लाज तुम्हहि न दीजिये । निरग्रंथ गुरु दे कर विजपु (१), सुकिन सो घर कीजिये ॥ तिहु वंत्रसहित त्रिकाल माया, मान-संजम-गद पिया | आपणी सकति सँभाल प्रतिवल, जगतके राऐ जिया ॥ १ ॥ तुम विन अवर न कोई, तुझको कोइ न आपनौ ! मीत नचीत न सोइ, काज महा सिर है घनौ ॥ सात शिव सिधि होइ, वासौं शिवपुर पाइए । पौ जिनवर देव, जिनवयणनि मन लाइए ॥ मन लाय वयनि जिनपजपौ, परय परिगह परिहरै । अरहंतदेव समान निहने, सदा भापौ अनुसरै ॥ १ ज्ञानी । २ त्रिभुवन । ३ राना । ४ कहा है । ५ जिनदेवका कहा हुआ 3 19

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