Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 358
________________ जैनवालवोधकखोंसे आंसू वह चले । अब उसे वह क्या कहकर समझावे, शेपमें वेसमझ बञ्चके अत्यंत प्राग्रहसे उसे सच्ची वात कह देना पड़ी वह रोती हुई बोली-वेटा ! मैं इस महा पापकी बात तुझसे क्या कहूं ? कहते हुये मेरी छाती फटती है । जो वात दुनियामें आज तक भी न हुई वही वात तेरे मेरे संबंधों है । वह यह है कि- . जो तेरा बाप है वही मेरा वाप है। मेरे पिताने मुझसे जबर्दस्ती व्याह करके मुझे कलंकित किया और उसीको तू फल है । कार्तिकेयको इस वातके सुननेसे बेहद दुःख और ग्लानि हुई, लजा और आत्मग्लानिसे उसका हृदय तलमला उटा । उस ने फिर मातासे पूछा कि क्यों मा ! उस समय मेरे पिताको ऐसा अनर्थ करते किसीने रोका नहीं, सब कानोंमें तेल डाले पड़े रहे यसने कहा-वेटा! रोका क्यों नहीं। अनेक जैनमुनियोंने समझाया ‘था परंतु उनकी बात नहिं मानी गई, उल्टा उन मुनियोंको देशसे निकाल दिया। . कार्तिकेयने फिर पूछा कि-माता वे गुणवान् मुनि कैसे होते हैं ! कृत्तिका बोली-वेटा! वे बड़े शांत रहते हैं किसीसे लड़ते झगड़ते नहिं । कोई पचासों गालियां भी उन्हे दे जाय तो वे उसे कुछ नहिं कहते और न उन पर क्रोध करते हैं। बेटा! वे बड़े 'विद्वान होते हैं अपने पास धन दौलत तो दूर रहे वे एक फूटी 'कौड़ी भी अपने पास नहिं रखते। वे चाहे कैसी ही ठंडी गर्मी वा 'वर्षा क्यों न हो कपड़ा नहिं पहरते, दशों दिशा वा आकाशही उन के कपड़े होते हैं । उनके सब समान है। वेटा! वे बड़े ही दयावान होते हैं कभी किसी जीवको जरा भी नहीं सताते जीवोंकी.

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375