Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 363
________________ चतुर्थ भाग । ३५५ मिथ्याती मुनिवर अवर सुतरुवर, सहें कलेश अनेक । तप तप्यौ न तपियौ खप्यौ न खपियो, दोऊ रहित विवेक ॥ दोऊरहित विवेक जीव इक, कर्म वैधै इक छोड़े । श्राव बंध उदय नहिं समझत, क्योंकर कर्महिं तोड़े ॥ दंसण-रे-चरण-गुणरया, मूरख खिन न सँभाले । काच समान विषयसुख साँदें, ते गहि तोनो रेलै ॥ ५ ॥ गहि तीनो रयणा तनमन व्यगा, चर निज चरन सयान । डंडस करुणा खंडनि मैया, मंडसि धरमह ध्यान ॥ मंडसि ध्यान कर्मठ्यकारण, कारण काज दिखावै । -काज सुदंसण ज्ञान सकति सुख, सहजहि चारो पावै ॥ बहुडि न कोई रहै कृतकर्मह, जो जग जीवा तारौ । एक समय में केवलज्ञानी, अनीत अनागत जाणे ॥ ६ ॥ अतीत श्रनागत देखत जानत, सो हम लख्यौ न देव | जो हूं देखत देखि विहरखत, हरग्व़ि करत तसु सेव ॥ हरखि हरखितसु सेव करता, जिन यापनसौ कीनौं । मोहनधूलि धरी सिर ऊपरि, ठगि रयणत्तो लीनौं ॥ अव श्री कुन्दकुन्द गुरुवयणा, जिन विन घडि न सुहावै । आपणड़ा गुण सहज सुनिर्मल, यौं जिनदास हि गाँवै ॥७॥ २ ज्ञान । ३ रन । ४ बदले । ५ फेंक देता है । ६ वचन ! -७ मदन- कामदेव |

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