Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 340
________________ ३३२ जैनवालवोधकवेआज कंकड़ पत्थर कंकड़मय पृथिवीपर नंगेपांव चल रहे हैं : यद्यपि पांवोंके तलुए छिलकर रक्त बहने लगा परंतु उस तरफ कुछ भी ध्यान नहीं हैं वे दनादन चले जा रहे हैं। सारी जिंदगीमें जिनकी अांखोंमें प्राशु न भरे हों उनकी आखोंमें भी सुकुमालका यह अंतिम तीन दिनका जीवन आंशु लादेनेवाला है। पांवों से खून बहता जाता है और सुकुमालमुनि चले जा रहे है. चलकर एक पहाड़की गुफामें पहुंचे वही पर ध्यानासन जमाकर बारह भावनाओंका विचार करने लगे। उन्होंने प्रायोपगमन सन्यास धारण कर लिया था जिसमें कि अपनी सेवा सुरुषा करानेका भी निषेध है। सुकुमाल मुनि तौ इधर प्रात्मध्यानमें लवलीन हुये अब जरा इनके वायुभूतिके जन्मकी वात याद कीजिये। जिस समय वायुभूतिके बड़े भाई अग्निभूति मुनि हो गये थे उस समय अग्निभूतकी स्त्रीको इन्होंने लात मारी थी सो उस वक्त उस भोजाईने निदान किया था कि इस अपमानका बदले में इस जन्ममें नहीं तो किसी न किसी अगले जन्ममें इसी पांवको और तुमारे हृदयको अवश्य खाऊँगी, तब ही मुझे शांति मिलेगी। सो वह भोजाई अनेक कुयोनियोंमें नानाप्रकारके दुःख भोगे सो अब वह इसी वनमें स्यारनी (गीदड़ी) हुई साथमें उसके तीन बच्चे थे सो वे चारों ही पावोंसे पथरों 'पर पडे हुये रक्त विंदुओंको चाटते २ इस गुफातक आ गये और स्यारनी सुकुमालको देखते ही क्रोध करके उस. पर झपटी और अचल ध्यानमें बैठे हुये मुनिको खाना सुरूकर

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