Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 350
________________ जैनवालयोधकशानी विना दुख कौन जान, जगत वनमें जो लह्यो। जरजन्ममरणस्वरूप तीछन, त्रिविधि दावानल दह्यो । जिनमतसरोवरशीतपर अब, पेठ तपन बुझाय हौ। जिय मोतपुरकी वाट वूझौं. अब न देर लगाय हौं । यह नरभव पाय सुशानी । कर कर निजकारज प्रानी। तिर्यंचयोनि जब पावै । तब कौन तुझे समुझावै ॥ समुझाय गुरु उपदेश दीनौं, जो न तेरे उर रहै । तो जान जीव अभाग्य अपनो, दोष काहको न है। सूरज प्रकाशै तिमरनाशै, सकल जनको भ्रम हरै । गिरिगुफागर्भ उदोत होत न, ताहि भानु कहा करै ॥ ७ ॥ जगमाहि विषयवन फूलौ । मनमधुकर तिस विच भूलौ ॥ रसलीन तहां लपटानौ । रस लेत न रंच अघानौ ॥ न घाय क्यौं ही रमै निशिदिन, एक क्षण भी ना चुके। नहिं रहै वरजौ घरज देखौ, वार वार तहां झुकै ॥ जिनमतसरोत सिधान्तसुन्दर, मध्य याहि लगाय हौं । अब 'रामकृष्ण' इलाज याकौ. किये ही सुखपाय हौं ॥८॥ ६२. सुकांशलमुनि। अयोध्यानगरीमें प्रजापाल राजाके समयमें एक सिद्धार्यनामके धनी शेठ थे । इनके ३२ स्त्रियां थीं परंतु संतान एकके भी नहीं र्थी । सबसे प्रिय जयावती नामकी स्त्री थी उसे पुत्रप्राप्तिकी सबसे अधिक इच्छा थी जिससे वह अनेक यत्तदेवी देव

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