Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्य भाग ।
३२७ जोड़कर कहा कि -- महाराज यह क्या कौतुक है शीघ्र ही हम लोगोंका संदेह दूर कीजिये । तव मुनिमहाराजने नागश्रीके पूर्वजन्मका समस्त चरित्र कहकर सुनाया और सबको जैनधर्मका उपदेश देकर संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होकर आत्मकल्याण करने में प्ररेणा की जिसके सुननेसे राजाको वास्तव में ये सब मोहकी लीला जान पड़ां मोह ही सब दुःखका मूल है इत्यादि विचारनेसे बड़ा वैराग्य हो गया। सो अनेक राजाओं के साथ जिनदीक्षा ग्रहण की। सोमशर्मा भी जैनधर्मका सत्यार्थ उपदेश सुनकर मुनि हो गया और तपस्या करके अच्युत स्वर्ग में देव हुआ । नागश्रोको भी अपने पूर्व के भव सुनकर वैराग्य हो गया सो दीक्षा लेकर प्रार्थिका हो गई और अंतमें शरीर छोड़ कर अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिकदेव हो गई ।
वहांसे विहार करके सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनिमहाराजने अग्निमंदिर पर्वत पर जाकर तपस्या द्वारा घातिया कर्मोंको नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और त्रिलोकपूज्य हां शेषमें शेष कर्मोको नष्ट करके मोक्ष को पधारे ।
इसके पश्चात् प्रयंती देशके उज्जैन नगर में इन्द्रद्रत्त नाम का शेठ बड़ा धर्मात्मा जिनभक्त दृढ़ श्रद्धानी या उसकी स्त्री गुणवती के गर्भ में प्रच्युतस्वर्गका देव जो कि सोमशर्माका जीव था सो सुरेंद्रदत्त नामका गुणी पुत्र हुआ। सुरेंद्रदत्तका विवाह उज्जैन में ही सुभद्रसेठकी लड़की यशोभद्राके साथ हुवा इनके घर में किसी बातकी कमी नहीं थी पुण्यके प्रतापसे अटूट धन और सर्व प्रकार के सुख प्राप्त थे । परंतु कोई संतान नहीं थी । एक दिन