Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग ।
३२
वह सुकुमाल ही था सो उस कंवलको ओढ़ते ही घबड़ाया और उतार कर फेंक दिया । तव यशोभद्राने उसके टुकड़े करके बहुत्रों - केलिये जूतियां वनवादीं। एक दिन सुकुमालकी एक स्त्री जूतियां खोलकर पांव धो रही थी सो चील उसे मांसखंड सम जूतीको उठा लेगई परंतु यह मांस नहिं है ऐसा समझते ही एक वेश्या के घर पर छोड़ दिया | वेश्याने इतनी कीमती जूनी राजघरानेकी समझ राजाके पास लेजाकर पेश की तौ राजाने बड़ा प्राचर्य किया कि जिसकी स्त्री ऐसी बहुमूल्य जूती पहरती है उसके धनका क्या ठिकाना इसका पता लगाना चाहिये। जब राजाने पता लगाया तो मालूम हुआ कि वह शेठ सुकुमाल है और उसकी स्त्री ही यह जूती है । राजाको सुकुमालसे मिल नेकी उत्कट इच्छा हुई तो खवर देकर एक दिन महाराज स्वयं 'सुकुमाल के घर गये । यशोभद्वाने वड़ा आदर सत्कार किया 'और अपने पुत्र और राजाकी एकही साथ घृतके दियेसे भारती उतारी जिससे सुकुमालको आंखों में पानी आगया । राजाने पूछा - तौ यशोभद्राने कहा कि महाराज ! इसने जन्म से लेकर आज तक रतनदीपक के सिवाय ऐसा दीपक कभी नहिं देखा था इसीसे • इसकी आंखों में पानी आ गया है ।
तत्पश्चात् राजाको और सुकुमालको भोजन कराया गया तौ सुकुमाल चावलों को वीन वीन कर खाने लगा । राजाने भेद पूछा तौ यशोभद्राने कहा कि खिले कमलों में चावल रख कर सुगंधित किये जाते है वे ही चावल यह हमेशद खाया करता है आज वे चावल अधिक न होनेसे दूसरे चावल मिलाकर