Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधककुंजर झेख अलि शलभ हिरन इन, एक अक्षवश मृत्यु लही। यातें देख समझ मनमाही. भवमें भोग भले न सही ॥४॥
काज सरै तव वे, जव निजपद आराधै।
नशै भवावलि.वे, निरावाधपद लाधै ॥ निरावाधपद लाधै तब तोहि, केवलदर्शनशान जहां। ' सुख अनंत अतिइन्द्रियमंडित, बीरज अचल अनंत तहां ॥ ऐसा पद चाहै तो भज नि, वारवार अव को उचर। 'दौल' मुख्य उपचार रत्तस्य, जो सेवै तो काज सर॥५॥
५६. विषयों में फंसे संसारी जीवका दृष्टांत ।
किसी समयमें एक मनुष्य भयंकर बनमें जा पहुंचा उसमें एक जंगली हस्तीने इसका पीछा किया। यह मनुष्य भागते २ अचानक कहीं एक अधकूपमें गिरने लगा गिरते २ वटके वृक्षकी जड़ पकड़ लो सो कूपमें अधर लटकने लगा। हस्तीने कोधमें आकर वट वृक्षकी शाखाको हिलाया तो उसमें मधुमक्खि. योंका छत्ता या उसकी समस्त मक्खिये उडकर उस मनुष्यके सर्व शरीर में चिएट कर काटने लगी उसने नीचे कूपमें झांककर देखा तो उसमें चारों तरफ चार सर्प मुख वाये इसके गिरनेकी वाट देख रहे हैं और बीच में एक अजगर भी मुख बाये
१ हाथी । २ मछली । ३ भौरा--भ्रमर । ४ पतंग । ५ एक एक इंद्रियके वससे। ६ भवों का समूह । ७ "जिन" भी पाठ है।