Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधकदुर्गतिमें जाना होता है वे दूसरोंकी प्रेरणासे भी धर्मके सन्मुख नहिं होते । असिभूतिको अपने भाईकी दुर्वद्धिपर बड़ा दुःख हुवा और मुनिमहाराजके साथ ही इनमें जाकर धर्मोपदेश सुननेले संसार शरीर भोगोंसे उदास होकर मुनि दीक्षा लेली।
अतिभूतिके मुनि हो जानेकी वात जव उसकी सती स्त्रीने मुनी तो उसने वायुभूतिसे कहा कि-देखो तुमने मुनिको वंदना नहिं करके उनकी बुराई की सो सुना जाता है कि तुमारे भाई इसीसे दुःखी होकर मुनि हो गये हैं यदि अव तक मुनिन हुये हों तो चलो उन्हें समझा कर लौटा लावें। परंतु वायुभूतिने गुस्सा होकर कहा तुम्हे गर्म हो तो तुम जावो, मैं उन नंगे मुनियों के पास नहि जाता इत्यादि मर्मभेदी वचन कह कर अपनी भौजाईको एक लात मारकर चल दिया। जिससे भौजाईको वड़ा दुःख हुआ स्त्री जाति अवला होनेसे और तो कुछ नहिं सरसको परंतु मनमें निदान बांध लिया कि-"इस वक्त तो में लाचार हूं परंतु अगले किसी न किसी जन्ममें तेरी यही टांग और हृदय खाऊंगी तव ही मुझे संतोष होगा" धिक्कार है इस प्रकारके मूर्खलोगोंके निदान विचारको।
इसके बाद मुनि निंदाके फलसे सात ही दिन बाद वायुभूः तिके सारे शरीरमें कोढ निकल आया सो ठीकही है प्रत्युत्कट पुण्य वा पापका फल तीन दिन या तीन पक्ष या तीन मास और तीन वर्षके भीतर २ अवश्य मिल जाता है। वायुभूति कोढके रोगसे मरकर कोशाँवीमें एक नटके यहां ग़धा हुआ । गधा मर. कर जंगली सूअर हुअा। सूअर मरकर चंपापुरी में एक चंडाल.