Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 327
________________ चतुर्थ भाग। ३१६ काह कुतिय काह कुबांधव, काह सुता व्यभिचारणी। किसह विसन-रत पुत्र दुष्ट, कलत्र कोऊ पररिणी ॥ ७ ॥ वृद्धापनके दुख जते, लखिये सब नयनन ते ते । मुख लाल बहे तन हाल. विन शक्तिन वसन संभालं ॥ न संभाल जाके देहकी तो, कहो चपी का कथा । तव ही अचानक पान जम गह, मनुजजन्म गयौं वृथा । काह जनम शुमठान किंचित, लह्यौ पद हुँदेवको। अभियोग किलिप नाम पायो, सही दुख परसेवकौ ॥ ८॥ नहं देख महत मुररिद्धी, झूयो विषयनकरि गृद्धी । कबई परिवार नसानौं, शोकाकुल है विललानौ ॥ बिललाय अति जब मरन निकट्यो, सहौ संकट मानसी।। मुरविभव दुखद लगी नवै जव, लखो माल मलानसी ॥ तव ही जु सुरउपदेशहित समु, झाइयो समुझौ न त्यौं । मिथ्यात्वजुत च्युत कुगति पाई, लहै फिर सो स्वपद क्यौं ॥६॥ यौं चिरभव अटवी गाही. किंचित माता न लहाही । जिनकथित धरम नहिं जान्यौ. परमाहि अपनपोमान्यौ । मान्यौ न सम्यक त्रयातम, आतम अनातममें फस्यौ। मिथ्या-चरन हरज्ञान रंज्यौ, जाय नवग्रीवक वस्यौ । पै लह्यौ नहिं जिनकथित शिवमग, वृथा भ्रम भूल्यौ जिया। चिदभाउके दरसावविन सब, गये अंहले तप किया ॥१०॥ १ दुष्टस्त्री । २ व्यसनी । ३ लाला लार | ४ धर्मकी । ५ चार प्रकारके देव । ६.७ देवोंमें अभियोग और किल्विष एक प्रकारके नीचे सेवकों समान देव होते हैं । ८ माला ! ९ मुरझानी हुई। १० व्यर्थ । -

Loading...

Page Navigation
1 ... 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375