Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग ।
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१०३ । श्रघातियाकमकी एक सौ एक प्रकृति है । वेदनीयको २ आयुकी ४ नामकर्मकी ९३ और गोत्रकर्मकी २ = १०१ ।
२०४ | सर्वघातिया प्रकृति इक्कीस हैं-- ज्ञानावरणकी १, ( केवलज्ञानावरण) दर्शनावरणकी ६ (केवलदर्शनावरण १ और निद्रा ५) मोहनीयकी १४ ( अनंतानुबंधी ४ श्रप्रत्याख्यानावर ४ प्रत्याख्यानावरण ४ मिथ्यात्व १ सम्यग्मिथ्यात्व १ ) |
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१०५ देशवातिप्रकृति छन्वीस है-शानावरणकी ४ (मतिशानावरण, श्रुतज्ञानावरण. अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण) - दर्शनावरणको ३, (चतुर्दर्शनावरण, श्रचतुर्दर्शनावरण, धौर अवधिदर्शनावरण मोहनीयकी १४ ( संचलन ४ नोकषाय ६ सम्यक्त्व १ ) अंतरायकी ५ कुल २६ |
१०६ क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां चार हैं- नरकत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी ।
१०७ । भवविपाको प्रकृतियां चार हैं-नरकायु तिर्यचायु मनुष्यायु और देवायु ।
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१०८ | जीवविपाकी प्रकृतियां अठहत्तर हैं. - घातियाकी ४७ गोत्रकी २ वेदनीयको २ और नामकर्मकी २७ ( तीर्थकर प्रकृति, उच्छ्वास, चादर, सूक्ष्म, पर्याप्ति, अपर्याप्ति, सुस्वर, दुःस्वर, प्रदेय, श्रनादेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, त्रस, थावर, प्रशस्त विहायोगति, प्रशस्तविद्दायोगति, सुभग, दुभंग, गति ४ जाति ! पांच सब मिलकर ७८ ।
१०६ | पुद्गलविपाकी प्रकृति वासठ हैं-सद प्रकृति- १४८ में - से क्षेत्रविपाकी चार, भवविपाकी चार, जीवविपाकी अठहत्तर