Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 314
________________ ३०६ जैनवालबोधकनाश होनेसे अव्यावाधस्व इस प्रकार आठगुण सिद्ध होनेपर हो जाते हैं । वे ससाररूपी अपार क्षार समुद्रसे पार उतर कर विकार, शरीर, और रूपरहित होकर शुद्ध चैतन्यमय अविनाशी सिद्ध हो जाते हैं ॥ १२ ॥ जव सिद्ध हो जाते हैं तव अपनी आत्मामें लोक-प्रलोक समत्त द्रव्योंके गुण पर्याय दर्पणकी माफक प्रतिबिंवित हो जाते हैं । मोक्षमें जैसे और सिद्ध हैं वैसे ये भी अनंतानंत काल पर्यंत रहेंगे । वे जीव धन्य हैं जिन्होंने नर भव पायकर यह कार्य सिद्ध किया। ऐसे ही जीवोंने अनादिकालसे चले आये पंच परावर्तनरूप संसारको त्यागकर उत्तम सुखको प्राप्त किया है ॥ १२ ॥ मुख्योपचार दुभेद यों बडभागि रत्नत्रय धरें। अरु धेरंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश जल जगमल हरौं । इमि नानि आलस हानि साहस ठानि यह सिख आदरो। जबलों न रोग जरा गहै तबलौं, मटिनि निजहित करी ॥ यह राग भाग दहे सदा, तातें समामृत सेइये। चिर भजे विषय कषाय, अव तौ त्याग निजपद वेइये ॥ कहा रच्यो परपदमें न तेरो, पद यहै क्यों दुख सहै। . अब दौल होउ सुखी स्वपदं रचि, दावमत चूको यहै ।।५|| जो बड़भागी इस प्रकार निश्चय व्यवहार दो भेदरूप चारित्रको धारण करते हैं वा धरेंगे वे मोक्षको पावेंगे । उनका सुयशरूपी जल जगतके मैलको हरैगा यह जानकरके आलस्यरहित हो और अपने साहसपूर्वक यह उपदेश ग्रहण करो कि जब तक

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