Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग ।
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रोग और बुढ़ापा नहिं आवै तब तक जल्दी से अपना बन्याण कर डालो | क्योंकि रागरूपी आग सब जीवोंके हृदय में सदासे जल रही है इस कारण ममनारूपी अमृतका सेवन करना चाहिये । हे दौलतराम ! चिरकालले विषय काय सेवन किये अय तौ इन सबको त्याग करके अपने निजपदको जान, जो नृ. पर वस्तुमें कच रहा है सो यह पद तेरा नहीं है क्यों यह सब दुःख भोग रहा है। अब स्वपदमें चकर मुखी हो यह दाव (मोका) हरगिज नहीं खो देना ॥ १५ ॥
इक नवं वसुं इके वर्षकी, तीन सुकुल वैशाख । करयो तव उपदेश यह, लखि बुधजनकी माख ॥ १ ॥ लघुधी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थकी भूल | सुधी सुधार पढो मदा, जो पावो भवकूल ॥ २ ॥ पंडित दौलतरामजीने प० बुधजनकृत इजढाको देखकर यह तत्त्वोपदेशमय छहढाला सम्वत् १८६१ मिती वैशाख सुदी तृतीयको पूर्ण किया है। पंडितजी कहते हैं कि थोड़ी बुद्धि तथा श्रमादसे जो कहीं शब्द या अर्थको भूल हो गई हो तो सुधी पुरुष इसे सुधार कर पढ़ें जिससे संसार-समुद्रकः किनारा मिले ॥ २ ॥ इति दौलतरामकृत छहढाला भाषानुवादमहित समाप्त ।
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