Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
१७०
जैनवालवोधकऐसे सब मिलकर ६६ प्रकृति घटानेसे शेष रहीं वासट प्रकृति पुद्गलविपाकी हैं।
११० । पापप्रकृति कुल १०० हैं-घातियाकर्माकी ४७, अमा. तावेदनीय १, नीचगोत्र १, नरकायु १. नामकर्मको ५० (नरकगति १, नरकगत्यानुपूर्वी १. तिर्यग्गनि १, तिर्यगत्यानुपूर्वी १, जातिमेसे श्रादिकी ४, संस्थान अन्तके , संहनन अन्तके ५, स्पर्शादिक २०, उपघात १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म १,. अपर्याप्ति १ अनादेय १, अयशःकीर्ति १, अशुभ १, दुर्भग १, दुस्विर १, अस्थिर १, साधारण १।।
१११ । पुण्य प्रकृतियां कुल ६८ अडसठ हैं। काँकी समस्त प्रकृतियां १४. जिनमेंसे पापप्रकृति १०० घटानेसे शेष रही ४८
और नाम कमकी स्पर्शादिक २० प्रकृति पुण्य और पाप दोनोंमें गिनी जाती हैं क्योंकि वोसों ही स्पादिक किसीको इष्ट किसी को अनिष्ट होते हैं । इसलिये ४८ में २० मिलनेसे १८ पुण्य प्रकृति
होती है।
.--::--- ___ ३६. श्रीशैल हनुमान। ___ इस भरतक्षेत्र में उत्तरकी तरफ विजयाचनामा पर्वत है । जिसकी दक्षणश्रेणीमें आदित्यपुरं नामका नगर है । उसमें प्रहाद नामका राजा राज्य करता था उसकी रानीका नाम केतुमती था। इनके वायुकुमार नामका पुत्र था जिसका दूसरा नाम पवनंजय था।