Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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૨૬ર
जैनपालबोधकविद्यार्थीका वेष धारण करके गया और जहांपर इन्द्रभूति अपने शिष्योंको पढ़ा रहे थे, वहांपर जाकर श्राप भी बैठ गया और उनका व्याख्यान सुनने लगा।
उस समय किसी विषयका प्रतिपादन करके इन्द्रभूतिने अपने सम्पूर्ण विद्यार्थियोंको उद्देश करके कहा, क्यों तुम लोगों को समझमें यह विषय आया? तव सव विद्यार्थियोंने प्रसन्नतासे "हां! हां!" कह दिया । परन्तु इन्द्रने जो कि छात्रके ही वेपमें वहाँ था, नाक भौंह सिकोड़कर अपनी अरुचि दिखलाई। जिसे विद्यार्थियोंने देखकर अपने गुरुजीसे कह दिया कि, महाराज ! यह छात्र आपकी अधिनय करता है। तव इन्द्रभूतिने उस अपूर्व छात्रसे कहा कि, मुझे सम्पूर्ण वेद और शास्त्र हस्तामलक हो रहे है, मेरे सामने ऐसा कोई भी विद्वान् वादी नहीं है जो गर्वगलित न हो जावै । फिर क्या कारण है कि, तुझे मेरा व्याख्यान नहीं रुचता है। तव वेषधारी छात्रने कहा कि, यदि आप संपूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वोंको जानते हैं तो मैं एक प्रार्याछन्द कहता हूं, श्राप उसका अर्थ लगा दीजिये- "षड्वव्यनवपदार्थत्रिकालपंचास्तिकायषट्कायान् ।
विदुषां वरः स एव हि यो जानाति प्रमाणनयैः ॥" इस अश्रुतपूर्व और विषम अर्थको कहनेवाली प्रार्याको
. १ भावार्थ:-छह द्रव्य, नौपदार्थ, तीन काल, पांच अस्तिकाय, और छहकायोंको जो प्रमाण और नयपूर्वक जानता है, वही पुरुष विद्वानोंमें. श्रेष्ठ है।