Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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. चतुर्य माग जल और दूध जैसे मिले हैं उसी प्रकार यह जीव और शरीर मिले हुये हैं परंतु वास्तवमें ये. सव जुदे जूदे है, एक नहीं है। जब देह और जीव ही एक नहीं है तब प्रत्यक्ष अन्य दीखने वाले धन मकानादि वा स्त्री पुत्रादि अपने कैंस हो सकते हैं let
अशुचित्व भावना । पल रुधिर गधमल यैली । कीकस वसादित मैली ॥ . नवद्वार बहें घिन कारी । अस देह कर किम यारी॥
यह देह मांस रुधिर (पीव ) राध वगेरह चर्वी मलोंकी मनीन थैलिया है। इस देहमें अपवित्र धिनावने नौ द्वारोंसे हमेशह मल बहते रहते हैं ऐसी देहसे कौन प्रीति करै ।९॥
आसव भावना। जो जोगनकी चपलाई । ताते ह आसव माई ।। आस्रव दुखकार घनेरे। वुधिवंत तिन्हें निरवरे ॥९॥ हे.भाई ! मन वचन कायसे योगोंका जो संचलन होता है उस से कर्मोका पात्रत्र (आगमन ) होता है। वे पानव बड़े दुखदायक हैं, बुद्धिमान पुरुष इनको दूर रहते करते हैं ॥ ६ ॥
संवर भावना । जिन पुण्य पाप नहिं कीना । आनम भनुभव चित दीना । तिनही विधि आवत रोके । संवर लहि सुख अवलोके ॥१०॥
जिन्होंने पुण्य-पाप रूप भाव नहिं करके आत्माके अनुभवमें चित्त लगाया उन्होंने ही आते हुये कर्माको रोककर संवरको प्राप्त कर सुखका अवलोकन किया ॥ १० ॥