Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधक- . और तारे । ज्योतिकदेव पृथिवीसे सातसौ नये योजनकी ऊं. चाईसे लगाकर नौसौ योजनकी ऊंचाई तक अर्थात् एकसौ दश योजन आकाशमें एक राजूमात्र तिर्यक् लोकमें रहते हैं।
६। वैमानिकदेव कल्पोपपत्र और कल्पातीतके भेदसे दो प्रकार के है जिनमें इंद्रादिकोंकी कल्पना है उनको कल्पोपपत्र कहते है और जिनमें इंद्रादिककी कल्पना न हो ऐसे नवप्रैवेयकादि में रहनेवाले देव कल्पातीतकहाते हैं। ___७ । कल्पोपपत्र देव सोलह प्रकारके है-सौधर्म, पेशान, सानकुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्रः महाशुक्र, सतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, पारण और अच्युत ।
टाकल्पातीतदेव २३ प्रकारक है-जो कि नववेयक, नव अनुदिश, पांचपंचोत्तर (विजय. वैजयन्त जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ) इन तेईसविमानोंमें रहते हैं।
नारकी जीव अधोलोककी सात पृथिवियोंमें रहनेवाले सात प्रकार के हैं । रत्नप्रभा (धर्मा ) शर्कराप्रभा (वंशा) वालकाप्रभा.(मेघा), पंकप्रभा ( अंजना), धूमप्रभा (अरिष्ठा), तमप्रभा (मघवी), महातमप्रभा (माधवी)।
१०। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्वलोकमें रहते है। बादर प. दिन किसी आधारका निमित्त पाकर यत्र तत्र निवास करते है। प्रसजीव असनालीमें (जो कि चौदह राजू ऊँची एकराजू लंबी. चौड़ी होती है) रहते हैं। विकलत्रय जीव कर्मभूमि और अंत के माधे द्वीप तथा अंतके स्वयंभूरमण समुद्र में ही रहते है।
११ । पंचेंद्रिय जीव तिर्यक लोक में रहते है. परन्तु जलकर