Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग : ४९ व्हढालासार्थ-पांचवीं ढाल ।
चालछंद २४ मात्रा। मुनि सकल बती बदमागी । भव भोगनत वैरांगी ॥ . वैराग्य उपावन पाई। चितौ अनुमेक्षा भाई ॥ १ ॥ . इन चिंतत समरस नागें । जिम बलन पवनके लागे । जवही जिय प्रातम जाने। तवहीं जिय शिवसुख थान ।।
जो बड़भागी संसार भोगोंसे उदासीन होकर संकलती मुनि होते हैं । वे वैराग्यको उत्पन्न करनेवाली माता बारह भावना
ओंको वारंवार चितवन किया करते हैं क्योंकि इन वारह भावनाओंके चितवन करनेसे जिस प्रकार पवनके लगनेसे अग्नि प्रज्वलित होती है उसी प्रकार समता रूपी रस उत्पन्न होता है। जव ही यह जीव अपनी आत्माको जानता है। तव ही यह मोन सुखको प्राप्त होता है।
. अनित्यमावना। जोवन गृह गोधन नारी । इय गप जन आज्ञाकारी ॥ . इंद्रिय भोग छिन याई । सुर धनु चपला चपलाई ॥ ३॥
जोवन, घर, गौ, धन, स्त्री, घोडा, हाथी, भागाकारी नौकर इंद्रियोंके भोग ये सव इंद्रधनुष वा चपल विजनीके समान क्षण भर में नाश होनेवाले अनित्य है ॥३॥. ; .