Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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રા
जैन बालबोधक
पसंद करके भगवान्के अर्थात् अपने आप भोग लगा कर भागन करने लगे ।
इसप्रकार भोजन करते २ जब छह महीने बीत गये तब उन का रोग दूर होने लगा और कुछ कुछ नैवेद्य बनने लगा । तब अन्य पुजारियोंने पूछा कि, भगवान् अब सब नैवेद्य क्यों नहीं खाते ? तय योगिराजने कहा कि भगवान श्रव तृम हो गये सो थोड़ा थोड़ा नैवेद्य छोड़ देते हैं । परन्तु इस जवाब से पुजारियों का दिल नहिं भरा इसलिये उन्होंने यह बात महाराज प्रगट की। महाराजने गुप्तभाव से पनालेकी राहसे एक चालाक और छोटे लड़के को प्रवेश कराकर उसे देखने को कहा। उसने समस्तभद्रको स्वयं भोजन करते देखकर जैसाका तैसा महाराजसे - निवेदन कर दिया ।
महाराज कुपित होकर योगिराज पुजारीसे वाले कि तुम वडे धूर्त और झूठे हो, जी भगवान्का नाम लेकर स्वयं सबका 'सव प्रसाद उड़ा जाते हो ! और भगवान्को नमस्कार भी कभी "नहिं करते ? जान पड़ता है तुम कोई नास्तिक हो ।
यह सुनकर समन्तभद्रस्वामी कुछ घवराये नहीं और बोले . कि राजन् ! मेरा नमस्कार अष्टादशदोपरहित देव ही झेल सकते । यह मूर्ति मेरा नमस्कार 'भेल नहिं सकती। यदि मैं इसे "नमस्कार करूंगा, तो मूर्ति फट जायगी ।
राजाने कहा कि मूर्ति फट जांय तो फट जाने दो परन्तु तुमको हमारे सामने नमस्कार करनाही होगा । देखें तुम्हारी • कैसी सामर्थ्य हैं ? योगिराजने कहा कि, यदि मेरी सामर्थ्य ही