Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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२१८ जैनवालवोधकरणधर भी रहते थे। जहाँ जहां भगवान जाते देवतागण समयशरण रचते जाते थे। भगवान के साथ पूर्वधारी साढ़े तीन सौ मुनि, दश हजार नवलौ पुराण कहनेवाले शिष्य मुनि थे, चौदह सै अवधिज्ञानी, एक हजार केवलज्ञानी, विक्रियाधारी एक हजार, मनापर्ययज्ञानी साढ़े सातसौ, बाद जीतनेवाले छहसौ मुनि, सोलह हजार साधारण मुनि, छत्रीस हजार अजिंकायें, एकलाख श्रावक, तीन लाख श्रावकायें असंख्यात देवी देवी और संख्यात पशु पक्षी थे। इसप्रकारकी बारह सभा सहित रत्नत्रयका उपदेश करते हुये धर्मका मार्ग दिखाते भगवान् विहार करते थे।
इसप्रकार कुछ दिन कम सत्तर वर्ष तक विहार करके सम्मेद शिखर पर आये वहां पर एक महीनेका योग धारण करके शुक्लध्यानके तीसरे पाये सूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिका प्रारंभ किया। इसके बाद सयोगकेवली तेरहवां गुणस्थान छोडकर अयोग. केवली नामके चौदहवें गुणस्थानमें पाये इस गुणस्थानका कालः अ उ ऋ ल. इन पांच अक्षरोंके उच्चारण जितना ही होता है इतने ही कालमें चौथे शुक्लध्यानके पाये व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक धारण करके श्रघातिकर्माको ८५ प्रकृतियोंका क्षय किया।
इस प्रकार संपूर्ण कोकी प्रकृतियोंका क्षय करके श्रावण सुदि सप्तमीको विशाखा नक्षत्र में भगवान मोत्तको पधारे । उन के साथ २ छत्तीस मुनि और भी मोक्षको प्राप्त हुये। इसके बाद पन्द्रादि देव मोक्षकल्याणके लिये अपने २ विमानों में बैठ कर आये और भगवानका शरीर पवित्र है. इसलिये रत्नोंकी पालकी