Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
२३४
जैनवालबोधककरने लगे । अर्थात् अवधिशागसे स्वामीने यह विचार लिया कि-मैंने इस अनादि संसार में भील. मारोत्र, राजपुत्र तिर्यच नरक मादिके करोडों भव धारण किये हैं और परिभ्रनगा किया है। कहीं पर भी सारता न देख समस्त भोगादि वस्तुओंमें उत्कृष्ट वैराग्यको प्राप्त हुये और मनन करते हुये कि-अहो ! मुक मूदके इतने दुर्लभ दिन इस जगतमं विना महाव्रतके यों हो चले गये। यह भी एक बड़े श्राश्चर्यकी बात है कि मैंने इस भवमें तीन झान काधारीवात्मज्ञानी होकर भी घरमरहकर विना संयनके धारण किये इतने दिन वृथा ही खो दिये। जो लोग ज्ञान पाकर निर्दोष तपका प्रावरण करते हैं उन्हींका शान सफल है, दूसरोंके लिये ज्ञानाभ्यासादि मात्र क्लेशरूप ही है। प्रशानपूर्वक किया हुआ पाप तत्त्वज्ञानसे नष्ट होता है परंतु ज्ञानपूर्वक किया हुधा पाप यहां किस तरह नष्ट हो । ऐला जानकर ज्ञानवानोंको कोई भी पाप नहीं करना चाहिये, क्योंकि मोहसे दुद्धर राग और प्राण जानेपर भी मोहादि निधकर्मरूप द्वेष उत्पन्न होते हैं। जिनके वश होकर यह प्राणो महाघोर पाप कर लेता है और पापने. चिरकाल दुर्गतिमें दुःख पाता है । ऐसा जानकर शानियोंको उचित है कि पहले प्रगट वैरान्यरूपी खड्गसे सर्व अनर्यके कारण दुष्ट मोहरूपी शत्रुओंका संह र करें।
अहो ! इस मोहका जीतना गृहस्थियोंसे नहीं हो सकता इसलिये पापके समान गृहके बंधनको भी दूरसंबोड देना चाहिये। वे ही इस जगतम पूज्य महान और धैर्यवान है-जो युवा प्रव- . स्थामें दुर्जय कामरूपी शत्रुको अच्छी तरह नाश कर डालते हैं।
-.- ... ... .:: :: .. ........ .