Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग ।
शुभबंधका फल भोगता है तौ शुभमें रति और अशुभमें अरनि मान कर अपने असली स्वरूपको भूल जाता है। इनके विपरीत ज्ञान विरागादि अपने कल्याणकारी हैं जो उनको अपने लिये दुखदायक समझता है । शक्तिको काममें लाकर अपनी इच्छाओंको रोका नहीं। इसी कारण मोक्षरूपी निराकुलता, अब तक नहि पाई ॥ और
याही प्रतीति जुत कछुक ज्ञान । सो दुखदायक अज्ञान जान ॥ इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त। ताकू जानहु मिथ्या चरित ॥ 'यों मिध्यात्वादि निसर्गजेह । यब जे गृहोत सुनिये सुतेह ||
इसी (उपर्युक्त प्रकारके) प्रकारके उल्टे श्रद्धान सहित जो कुछ आत्माका ज्ञान है उसको दुखदायक मिथ्याज्ञान जानो और इन मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान सहित पंचेंद्रियोंके विषयों में प्रवृत्ति है उसे मिथ्याचारित्र जानो । इस प्रकार ये मिथ्यादर्शनादिक तौ
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गृहीत अर्थात् जीवके हमेशह साथ रहनेवाले हैं। और इनके सिवाय जो इस मनुष्य जन्म में नये ग्रहण कर लिये हैं। ऐसे 'गृहीत मिथ्यादर्शनादिको आगे कहते हैं सो सुनो ॥ ८ ॥ जो गुरु कुदेव कुधर्म सेव | पोषै चिरदर्शन मोह एव || अन्तर रागादिक घरे जेह । बाहर धन अम्बरतें सनेह ॥ ९ ॥ धारै कुलिंग लहि महत भाव । ते कुगुरु जनम जल उपल- नाव ॥ 'जे रागद्वेष मलकरि मलीन । वनिता गदादिः जुत चिह्न चीन ॥ ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव । शठ करत न तिन भवभ्रमन छेव ॥ रागादि भाव हिंसा समेत । देर्पित त्रस्यावर मश्न खेत ॥११॥