Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थी भाग 1
२१५ विचार कर बड़े क्रोधसे नेत्र लाल करके भगवानको उपसर्ग करना प्रारंभ किया। उसने चारों ओर घोर अन्धकार करके मेघकी भयानक गर्जनापूर्वक मूसलधार मेघ बरसाया, आंधी भी खूब जोरसे चलाई जिससे पर्वत गिर पड़े, बड़े २ वृक्ष उखड़ गये, समस्त पृथिवी समुद्र समान भासने लगी। परंतु भगवान जैसे तैसे अडिग सुमेरुपर्वत समान अचल खड़े रहे। इसके पश्चात् और भी अनेक प्रकार के उपसर्ग भगवानके ऊपर किये. उनके सामने प्राकर यमराजका भयंकर रूप दिखाने लगा । अपने मुंह पर कलोंच लगाकर बड़े जोर जोर से रोने चिल्लाने लगा, गले में मुंडमाला डाल कर सुहसे श्रग्निके फुलिंगे बाहर करने लगा, और मोटे स्वरले 'मारो मारो' चिल्लाने लगा । इत्यादि प्रकार से भगवानको अनेक उपसर्ग किये. परंतु भगवान का ध्यान तिलभर भी न डिगा जिसके प्रभाव से पाताल में धरणेंद्र का शासन कंपायमान हुआ । अवधिज्ञान जोड़ने से मालूम हुआ कि पूर्वजन्म में भगवान पार्श्वनाथका मेरे ऊपर बड़ाभारी उपकार हुआ है सो वह तुरंत ही पद्मावतीको साथ लेकर भगवानके पास आया दोनोंने हाथ जोड़कर भगवानको नमस्कार किया । और भगवानके मस्तक पर नागके फणका वडाभारी मंडपसा बना दिया जिससे भगवान के ऊपर एक बूंद भी पानी नहिं पड़ा और एसे एक वडेभारी भुजंगको जब उस ज्योतिपीने देखा तो देखते ही भय खाकर भाग गया। उस समय भगवान सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में स्थिर हो गये। भगवानने चौथे गुणस्थानं में सात प्रकृतियोंका क्षय तौ पहिले ही कर दिया था और