Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवांधकक्रोध एकदम शांत हो गया। तथा मुनिके चरणों में मस्तक रख कर निश्चल हो गया। तब मुनिमहाराजने मीठे शब्दों में कहा किअरे ! तूने यह क्या हिंसाकर्म आरंभ किया ! हिंसा करना वड़ा भारी पाप है, हिंसासे दुर्गतियोंमें दुःख भोगने पड़ते हैं। तूने इतने प्राणियोंकी हिंसा की, तुझे पापका भय कुछ भी न रहा ! देख! पापोंके योगसे ही तू ब्राह्मणका जीव होकर इस हाथोकी पर्याय, पाया।तू मरुभूति मंत्री और मैं अरविंद राजा. यह तुझे पहचान नहीं पडी। तुझे धर्मरहित पार्तध्यानके कारण ही यह निकृष्ट पशुयोनिकी प्राप्ति हुई है। अव इस कार्यको छोड़ कर मनमें धर्मभावना रख, सम्यग्दर्शन धारण कर, जन्मभर निर्मल ‘पंचाणुव्रत धारण करके रह। यह सुनकर हाथीका मन बहुत दया कोमल हो गया । अपने किये हुये पापोंकी निंदा करने लगा और गुरके चरणोंपर मस्तक रख वैठ गया। तब मुनिने सत्यार्थ धर्मका उपदेश दिया। सम्यक्त्वका स्वरूप कहकर पंच उदंवर तीन मकारका (मद्य, मांस, मधुका) त्याग करनेको 'कहा। तत्पश्चात् श्रावकके वारह व्रतोंका स्वरूप उसे कहा सो गुरुके मुखसे सुनकर वह हाथी अपने अंतःकरणमें धारण करके वारंवार भूमिपर मस्तक रखकर मुनिके चरणों में नमस्कार करने लगा। • तत्पश्चात् मुनि महाराज वहांसे जाने लगे तो हाथी मुनिमहारांजके साथ बहुत दूरतक पहुंचानेको गया और शेष काल नमस्कार करके वापिस लोटा । उसी समयसे अपने व्रतोंको पालन करता हुआ उसी वनमें रहा । पहिलेकेसा सव उपद्रव. करना