Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग 1
२११ नहीं उसकी जगह नरक नियैचादि दुर्गतियोंके दुःख ही भोगने पड़ते हैं । अतएव इन विषयभोगोंका अनुराग छोड़ना ही उत्तम. है । मैने भी इतने दिन व्यर्थ गमा दिये । संयमके विना जो इतना काल बिता दिया वह समझमें ही नहिं प्राया । मोहके वशीभूत हो तपश्चरण धारण नहिं किया सो अच्छा नहि किया । अस्तु, जो हुआ सो तौ हुआ परंतु अव चारित्ररूपी चिंतामणि ग्रहण करनेमें विलंब नहिं करना चाहिये ।"
- इसप्रकार विषय भोगों से विरक्त होकर भगवानने द्वादशानुप्रेक्षा का चितवन प्रारंभ किया । इतनेमें हो पांचवें स्वर्गके लौकांतिक देव था गये और भगवानपर पुष्पांजली डालकर भगवानके चरणोंकी पूजा की और हाथ जोडकर कहने लगे- धन्य प्रभो धन्य ! हे जगत्पते धन्य हैं प्रापके विचारोंको और धन्य है आपके इस सियानपनको । हे दयानिधे ! श्राजका यह समय भी धन्य है जो यह प्रसार संसार और देह अपवित्र है ये सव क्षण भंगुर है ऐसा श्रापने जानकर स्थिर किया और इन्द्रियोंके सब सुख स्वप्न समान आपको भास गये सो वास्तव में सब इसी प्रकार ही हैं। इसमें रंचमात्र भी शंका नहीं है । आपने जो चिस में विचार लिया है वही श्रापका व जगत भरका कल्याण करने चाला कार्य है। आज आप वैराग्यरूपी खड्ग हाथमें लेकर मोह'रूपी शत्रुको नाश करनेके लिये उद्यमी हुये हैं उससे शुभका
१ बारह अनुप्रेक्षाओंका चिंतत्रन सर्वत्र एकसा ही होता है इसलिये यहां नहीं लिखा ।