Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग। गोत्र कर्मकी आट २ मुहूर्त, और शेषके समस्त कर्माकी अंत-. र्मुहूर्त २ जघन्यस्थिति है। . . ११५। एक करोडको एक करोडसे गुणा करने पर जो लब्ध हो उसको एक कोडा कोड़ी कहते हैं। .
१६ । दश कोडा कोडी प्रद्धापल्यों का एक सागर होता है।
११७। दो हजार कोश गहरे और दो हजार कोश चौड़े गोल गढेमें कैचीसे जिसका दूसरा खंड न हो सके ऐसे मेढेके यालों. को भरना। जितने वाल उसमें समा उनमें से एक वालको सौ सौ वर्षबाद निकालना। जितने वर्षोंमें वे सव वाल निकल जावें उतने वर्षोंके समयको व्यवहारपल्प कहते हैं। व्यवहारपल्यसे असंख्यात गुणा उद्धार पल्य होता है। उद्धारपल्यसे
असंख्यात गुणा अद्धापल्य होता है। . . १९८॥ अडतालीस मिनटका १ मुहूर्त होता है। प्रावलीसे ऊपर और मुहूर्तसे नीचेके कालको अंतर्मुहूर्त कहते हैं।
११६ । एक श्वासोच्छ्वासमें असंख्यात पावनी होती है। नीरोग पुरुषकी नाडीके एक वार चलनेको श्वासोच्छ्वास काल कहते हैं। ऐसे तीन हजार सातसौ तेहत्तर श्वासका एक मुहूर्त होता है।
१२० । कर्मोंमें फल देनेकी शक्तिकी हीनाधिकताको अनुभागवंध कहते हैं। - १२१ । बंधनेवाले कर्मोकी संख्याके निणयको प्रदेशबंध कहते हैं।