Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधकअभिलाषी हूं । गरुड़ क्या पतंगोंकी रीति आचरण कर इत्यादि बहुत कुछ युक्त प्रार्थना की जिससे दशरथ महाराज बहुत प्रसन्न होकर भरतसे वोले-हे पुत्र तू धन्य है.भव्यों में प्रधान है, जिनशासनका रहस्य जानकर प्रतिबुद्ध हुआ है सो जो तू कहता है सब सत्य है। परंतु हे धीर! तूने अवतक मेरी प्राक्षा भंग नहिं की। तू विनयवान पुरुषों में प्रधान है, मेरी बात ध्यानसे सुन । तेरी माताने युद्ध में मेरा सारथीपना करके मुझे जिताया। मैंने प्रसन्न होकर मुहमांगा वर देना चाहा उसने वह वर उस धक न लेकर मेरे पास जमा रक्खा था सो आज उसने यह वर मांगा है कि मेरे पुत्रको राज दो, सो मैंने स्वीकार कर लिया है इस कारण हे गुणनिधि ! इंद्रके राज्य समान इस राज्यको निष्कंटक चलाकर मेरी प्रतिज्ञा भंगकी अपकीर्ति जगतमें न हो, सो कर। जो यह पात न मानेगा तो यह तेरी माता शोकसे ततायमान होकर मर जायगी । पुत्र उसेही कहते हैं जो माता पिताको शोक समुद्रमें न डारकर सुखी करै । इस प्रकार समझानेपर श्रीरामचंद्रने भी कहा भाई ! पिताजी कहते हैं सो अवश्य स्वीकार करना योग्य है। तेरी उमर इस समय तप करने योग्य नहीं है कुछ दिन राज्य कर । जिससे पिताकी कीर्ति आज्ञापालनेसे चंद्र. माके समान निर्मल हो । तेरे सरीखे गुणवान पुत्रके होते हुये माता शोकसे ततायमान होकर मरण करै सो योग्य नहीं । और मैं समस्त राज ऋद्धि छोड़कर देशांतरमें किसी पर्वत या वनम ऐसी जगह पर रहूंगा, जो कोई नहीं जानेगा । तू निश्चित हो