Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधकमंत्री श्रादि आये। सीताका रुदन सुन विभीषणने कहा-यह कौन रोती है ? बड़ी दुखिया है । सीताने पूछनेपर उसे अपना परिचय दिया। विभीपणने रावणको इस प्रान्यायसे दूर रहनेकी बहुत कुछ प्रार्थना की तथा मारीच मंत्रीने भी कहा परंतु रावणने एक न सुनी । पृथिवीमें जो २ उत्तम पदार्थ हैं वे मेरे हैं और मेरे ही उपभोग्य हैं तुम लोग परस्त्रा क्यों कहते हो इत्यादि कहकर चल दिया
तत्पश्चात् सीताको देवरमण वनसे लेजाकर फुल्लगिरी पर्वत पर प्रमद नामका अति मनोहर उद्यान (वाग ) था उसमें अशोकमालिनी वापिकाके निकट अशोक वृक्ष के नीचे विठा दिया। सैकड़ों विद्याधर स्त्रियां नाना प्रकारको भोगोपभोग सामग्री लिये हाजिर थीं परंतु सीताने कुछ न छुपा
इधर विभीषणने मंत्रियोंसे सम्मति करके लंकाको नाना प्रकारके मायामयी यत्रोंसे सुरक्षित करके सर्वत्र पहरा विठा दिया जिससे परराष्ट्रका कोई मनुष्य कामें प्रवेश न कर सके।
इधर रावणकी पतके वानरवंशियोंके अधिपति किपकिया के वलाढ्य राजा सुग्रीवको स्त्री सुतारापर साहसगति नामा विद्याधर पहिले होसे प्रासक्त था सो वांछितरूपदायिनी विद्या को साधकर ठीक सुग्रीवका रूप बनाकर सुताराके महलमें पहुंच गया। असल सुग्रीवके आनेपर वह कहे-मैं सुग्रीव हूं, वह कहे मैं सुग्रीव हूं । इसप्रकार झगड़ा लगनेसे दुःखी होकर तथा पाताल लंकाके बड़े योद्धा खरदूषणको मारनेवाले रामचन्द्र लक्ष्मणकी शरणमें जाकर अपना दुःख निवेदन किया कि-हे नाथ! मैं बड़ा