Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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चतुर्थ भाग। १४ जिस कर्मके उदयसै जीवके अंतत्त्वश्रद्धान हो, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। :: :: :: :: : *
१५। जिसकर्मके उदयंसे मिले हुयें परिणाम हों, अर्थात् जिनको न तौ सम्यक्त्वरूप कह सकते हैं और न मिथ्यात्वरूप उसको सम्यक्मिथ्यात्व कहते हैं। . ." · २६ । जिस कर्मके उदयसे सम्यक्त्व गुणका मूलघात तो न हो चलमलादिक दोष उपजै, उसको सम्यक्प्रकृति कहते हैं। _१७ । जो प्रात्माके चारित्र गुणको घात उसको चारित्र मोहनीय कहते हैं। . .
१८॥ चारित्र मोहनीयके मूल दो भेद हैं, एक कषाय और दूसरा नोकषाय । .......
१६ । कषाय सोलह प्रकारका है। अनंतानुबंधी क्रोध,अनंतानुवंधी मान, अनंतानुबंधी माया,अनंतानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध. अप्रत्याख्यानावरण मान,अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्यासानांवरण मान, प्रत्याख्यानावरण माया प्रत्याख्यानावरण लोभ, संज्य. लन क्रोध, संज्वलनमान, संज्वलन माया. और संज्वलन लोम। ___२० । नोकषाय नवःप्रकारका है, हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेदानपुंसकवेदा::
२१ । जो आत्माके स्वरूपाचरण:चारित्रको घातें उनको अनंतानुबंधी क्रोध,मान: माया लोम कहते है।.
२२ जो प्रात्माके देश चारित्रको घात उनको अप्रत्याख्याना